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ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रक़ीब <ref>दुश्मन</ref> आख़िर था जो राज़दां अपना
मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में, यारब
दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे <ref>आखिर</ref> आशना <ref>दोस्त</ref> निकला उनका पासबां <ref>दरबान</ref> अपना
दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार <ref>जख्मी</ref> अपनी ख़ामा <ref>कलम</ref> ख़ूंचकां <ref>खून टपकाता हुआ</ref> अपना
घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अ़बस <ref>बे-वजह</ref> बदला नंग-ए-सिजदा <ref>झुक कर प्रणाम करना</ref> से मेरे संग-ए-आस्तां <ref>दरवाजे का पत्थर</ref> अपना
ता करे न ग़म्माज़ी<ref>चुगली</ref>, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना
हम कहाँ के दाना <ref>समझदार</ref> थे, किस हुनर में यकता <ref>खास</ref> थे बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन अस्मां आसमां अपना
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