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"416, सेक्टर 38 / लाल्टू" के अवतरणों में अंतर
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समेटना चाहा है | समेटना चाहा है | ||
− | + | बाँटना चाहा है | |
− | + | ख़ुद को | |
हरे-पीले पत्तों में | हरे-पीले पत्तों में | ||
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दूर-सुदूर देशों तक | दूर-सुदूर देशों तक | ||
हमारे धागे | हमारे धागे | ||
− | + | पहुँचते हैं स्पंदित होंठों तक | |
आक्रोश भरे दिन-रात | आक्रोश भरे दिन-रात | ||
आ बिखरते हैं | आ बिखरते हैं | ||
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के दो कमरों में | के दो कमरों में | ||
− | हमारे | + | हमारे आसमान में |
− | एक | + | एक चाँद उगता है |
− | जिसे | + | जिसे बाँट देते हैं हम |
लोगों में | लोगों में | ||
कभी किसी तारे को | कभी किसी तारे को | ||
− | अपनी | + | अपनी आँखों में दबोच |
उतार लाते हैं सीने तक | उतार लाते हैं सीने तक | ||
फिर छोड़ देते हैं | फिर छोड़ देते हैं | ||
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डरते हैं | डरते हैं | ||
− | खो न | + | खो न जाएँ |
तारे | तारे | ||
कमरे तो दो ही हैं | कमरे तो दो ही हैं | ||
− | + | कहाँ छिपाएँ? | |
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01:17, 27 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
चार सौ सोलह, सेक्टर अड़तीस में
हम दो रहते हैं
समय और स्थान के भूगोल को
दो कमरों में हमने
समेटना चाहा है
बाँटना चाहा है
ख़ुद को
हरे-पीले पत्तों में
हमारे छोटे से सुख-दुःख हैं
हम झगड़ते हैं, प्यार करते हैं
दूर-सुदूर देशों तक
हमारे धागे
पहुँचते हैं स्पंदित होंठों तक
आक्रोश भरे दिन-रात
आ बिखरते हैं
चार सौ सोलह, सेक्टर अड़तीस
के दो कमरों में
हमारे आसमान में
एक चाँद उगता है
जिसे बाँट देते हैं हम
लोगों में
कभी किसी तारे को
अपनी आँखों में दबोच
उतार लाते हैं सीने तक
फिर छोड़ देते हैं
कुछ क्षणों बाद
डरते हैं
खो न जाएँ
तारे
कमरे तो दो ही हैं
कहाँ छिपाएँ?