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(नया पृष्ठ: <h1><b>चलो </b> </h1> <br><pre> रचनाकार=अशोक तिवारी </pre> <poem> चलो ...... चलो कि चलना ही जीव…)
 
 
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चलो कि चलना ही जीवन है
 
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चलो कि चलना ही हासिल है
 
चलो कि चलना ही हासिल है
 
ज़िन्दगी मैं जुड़ते जा रहे पलों का
 
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चलो कि चलना है मंजिल पर पहुँचने क़ी
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चलो कि चलना है मंज़िल पर पहुँचने की
 
एक हसीन हसरत
 
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चलो कि चलना इस बात का है
 
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चलो कि चलना लक्षण है उस संस्कृति का
 
चलो कि चलना लक्षण है उस संस्कृति का
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जो दी जाती है एक बच्चे को
 
जो दी जाती है एक बच्चे को
बगैर किसी ऊच-नीच के
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चलना है बहती हुई हवा को
 
चलना है बहती हुई हवा को
 
अपने होने का अहसास कराना
 
अपने होने का अहसास कराना
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चलो कि चलना खोलना है
 
चलो कि चलना खोलना है
 
बंद होते जा रहे खिड़की के सभी झरोखे
 
बंद होते जा रहे खिड़की के सभी झरोखे
चलना है उन्हीं झरोखों से झांकती रौशनी को अपने अंदर भरना
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चलना है उन्हीं झरोखों से झाँकती रौशनी को अपने अंदर भरना
  
 
चलो कि चलना
 
चलो कि चलना
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चलो कि चलना इस बात की है निशानी
 
चलो कि चलना इस बात की है निशानी
 
कि हारे नहीं हो तुम
 
कि हारे नहीं हो तुम
उठ सकते हो बार- बार गिरकर भी  
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उठ सकते हो बार-बार गिरकर भी  
  
 
चलो कि चलना जूझना है
 
चलो कि चलना जूझना है
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और मोड़ना है अपनी दिशा में
 
और मोड़ना है अपनी दिशा में
 
अपनी बाजुओं की ताक़त के बल पर  
 
अपनी बाजुओं की ताक़त के बल पर  
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00:29, 28 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

चलो .....
चलो कि चलना ही जीवन है
चलो कि चलना ही हासिल है
ज़िन्दगी मैं जुड़ते जा रहे पलों का
चलो कि चलना है मंज़िल पर पहुँचने की
एक हसीन हसरत
चलो कि चलना इस बात का है
पुख्ता सबूत
कि ठहरे नहीं हो तुम

चलो कि चलना लक्षण है उस संस्कृति का
ठहर नहीं सकती जो
उस तहज़ीब का
जो दी जाती है एक बच्चे को
बग़ैर किसी ऊँच-नीच के
चलना है बहती हुई हवा को
अपने होने का अहसास कराना

चलो कि चलना खोलना है
बंद होते जा रहे खिड़की के सभी झरोखे
चलना है उन्हीं झरोखों से झाँकती रौशनी को अपने अंदर भरना

चलो कि चलना
बनना है नदी के उस पानी कि तरह
बहता जाता है जो निश्छलता के साथ
अपने उद्दाम वेग से
पहाड़ों के बीच

चलो कि चलना इस बात की है निशानी
कि हारे नहीं हो तुम
उठ सकते हो बार-बार गिरकर भी

चलो कि चलना जूझना है
उलटी बह रही हवाओं से
और मोड़ना है अपनी दिशा में
अपनी बाजुओं की ताक़त के बल पर