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"माँ / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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और हमारे होंठों तक
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अंजुरी में भरकर लाती है समुद्र
उसके दोनों हाथों में उठे.<br />
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आकाश हैं हम
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उसके दोनों हाथों में उठे.
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20:19, 29 अप्रैल 2010 का अवतरण

एक :
शताब्दियों से
उसके हाथ में सुई और धागा है
और हमारी फटी कमीज
माँ फटी कमीज पर पैबन्‍द लगाती है
और पैबन्‍द पर काढ़ती है
भविष्‍य का फूल

दो :
वह रात भर
कंदील की तरह जलती है
इसके बाद भोर के
तारे-सी झिलमिलाती है
माँ एक नदी का नाम है
जो जीवन के कछारों को
उर्वर बनाती है.

तीन :
वह धान की एक बाली है
धूप हवा में पकाती अपने भीतर
दूध-सा कच्‍चा हमारा जीवन

वह जानती है कि हमीं हैं
कल खलिहान में
किसान के सूपे से झरने वाले मोती.


चार :
सम्‍पूर्ण धरती है माँ
हमारी साँसों की धुरी पर घूमती
जहाँ सबसे पहले फूटे जीवन के अंकुर
वह हमारे माथे पर
मोर पंख की तरह
बांधती है वसन्‍त
हमारे घावों पर रखती है
रूई के फाहों-से बादल
और हमारे होंठों तक
अंजुरी में भरकर लाती है समुद्र

आकाश हैं हम
उसके दोनों हाथों में उठे.