"चाँदनी / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
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15:32, 10 मई 2010 का अवतरण
नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
मृदु करतल पर शशि-मुख धर
नीरव, अनिमिष एकाकिनि।
वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
छू लेती अग-जग का मन,
श्यामल, कोमल चल चितवन
जो लहराती जग-जीवन!
वह फूली बेला की वन
जिसमें न नाल, दल, कुड्मल
केवल विकास चिर निर्मल
जिसमें डूबे दस दिशि-दल!
वह सोई सरित-पुलिन पर
साँसों में स्तब्ध समीरण,
केवल लघु-लघु लहरों में
मिलता मृदु-मृदु उर-स्पन्दन!
अपनी छाया में छिपकर
वह खड़ी शिखर पर सुन्दर,
है नाच रही शत-शत छवि
सागर की लहर-लहर पर!
दिन की आभा दुलहिन बन
आई निशि-निभूत शयन पर
वह छवि की छुई-मुई-सी
मृदु मधुर लाज से मर-मर
जग के अस्फुट स्वप्नों का
वह हार गूँथती प्रतिपल,
चिर सजल, सजल करुणा से
उसके ओसों का अंचल!
वह मृदु मुकुलों के मुख में
भरती मोती के चुम्बन,
लहरों के चल करतल में
चाँदी के चंचल उडुगण!
वह लघु परिमल के घन-सी
जो लीन अनिल में अविकल,
सुख के उमड़े सागर-सी
जिसमें निमग्न उर-तट-स्थल!
वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी
है मुँदे दिवस के द्युति-दल,
उर में सोया जग का अलि
नीरव जीवन-गुँजन कल!
वह नभ के स्नेह श्रवण में
दिशि का गोपन-सम्भाषण,
नयनों के मौन मिलन में
प्राणों का मधुर समर्पण!
वह एक बूँद संसृति की
नभ के विशाल करतल पर
डूबे असीम सुषमा में
सब ओर-छोर के अन्तर!
झंकार विश्व जीवन की
हौले-हौले होती लय
वह शेष, भले ही अविदित,
वह शब्द-युक्त शुचि आशय!
वह एक अनन्त प्रतीक्षा
नीरवस अनिमेष विलोचन,
अस्पृश्य, अदृश्य, विभा वह,
जीवन की साश्रु-नयन क्षण!
वह शशि-किरणों से उतरी
चुपके मेरे आँगन पर,
उर की आभा में कोई,
अपनी ही छवि से सुन्दर!
वह खड़ी दृगों के सम्मुख
सब रूप, रेख, रंग ओझल
अनुभूति मात्र-सी उर में
आभास-शान्त, शुचि उज्जवल!
वह है, वह नहीं, अनिर्वच,
जग उसमें, वह जग में लय,
साकार चेतना-सी वह
जिसमें अचेत जीवाशय!