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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : शीतल पेयजल पीता है सूरज  <br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब का<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[दिनकर कुमार]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[मधुभूषण शर्मा]]</td>
 
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बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नया प्रतिनिधि
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पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब का
सूरज
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बढ़ेगा और भी रुतबा अज़ीमुश्शान ग़ालिब का
डूबने से पहले शीतल पेयजल पीता है
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और चाँद
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एक बोतल की शक्ल में उभर आता है
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बच्चे गाते हैं
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लगा सकता नहीं कोई कभी कीमत यहाँ उसकी
विज्ञापन के गीत
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जो घर से बाद मरने के मिला सामान ग़ालिब का
उछलते हैं-नाचते हैं
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अजीब-अजीब आवाज़ के साथ
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एक खुशहाल देश को
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प्रायोजित किया जाता है
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किस कदर गद-गद होता है
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अंग्रेज़ी में लिपटा हुआ देश
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शेयर बाज़ार के दलालों के फूले हुए चेहरे
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पाप और पुण्य की शिकन को
+
कभी महसूस नहीं कर सकते
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जीने की ज़रूरी शर्त बन गई है
+
जुआरी मस्त बादाकश-सा शायर तो दिखा सब को
धूर्त होने की कला
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कि कोई कद्र-दाँ ही फ़न सका पहचान ग़ालिब का
गरीबी की रेखा की ग्लानि से
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ऊपर उठकर उधार की समृद्घि
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तिरंगे पर फैल जाती है
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कूड़ेदानों में जूठन बटोरते हुए बच्चों
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गली कोठों मुहल्लों के झरोखे आज तक पूछें
और अधनंगी औरतों के बारे में  
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चुका पाएगी क्या दिल्ली कभी एहसान ग़ालिब का
कोई विधेयक पारित नहीं होता
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ठंडे चूल्हों को सुलगाने के बारे में
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शराबो-कर्ज़ में ड़ूबे करें अशयार दीवाना
न्यायपालिका के पास
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कि प्यासा रह नहीं सकता कभी मेहमान ग़ालिब का
कोई विशेषाधिकार नहीं है
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बाज़ारू बनने की होड़ में बिकाऊ
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ज़रा बादल गुज़रने दो दिखाई चाँद तब देगा
बना दिया गया है सूरज को
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नहीं मतलब समझ पाना रहा आसान ग़ालिब का
चाँद को धरती को  
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मनुष्य की गरिमा को
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न कहिए यह कि तू क्या है ये अंदाज़े-अदावत है
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ख़फ़ा इस गुफ़्तगू से है दिले-नादान ग़ालिब का
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नहीं थी हाथ को जुंबिश तो ये आँखों का ही दम था रहा
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पाँओं की लग्ज़िश से बचा ईमान ग़ालिब का
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है लाया रंग सचमुच शोख़ फ़ाक़ामस्त वो पैकर
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न हो बेआबरू पाया ‘मधुर’ ऐलान ग़ालिब का
 
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12:03, 6 जून 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब का
  रचनाकार: मधुभूषण शर्मा
पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब का
बढ़ेगा और भी रुतबा अज़ीमुश्शान ग़ालिब का

लगा सकता नहीं कोई कभी कीमत यहाँ उसकी
जो घर से बाद मरने के मिला सामान ग़ालिब का

जुआरी मस्त बादाकश-सा शायर तो दिखा सब को
कि कोई कद्र-दाँ ही फ़न सका पहचान ग़ालिब का 

गली कोठों मुहल्लों के झरोखे आज तक पूछें
चुका पाएगी क्या दिल्ली कभी एहसान ग़ालिब का

शराबो-कर्ज़ में ड़ूबे करें अशयार दीवाना
कि प्यासा रह नहीं सकता कभी मेहमान ग़ालिब का

ज़रा बादल गुज़रने दो दिखाई चाँद तब देगा
नहीं मतलब समझ पाना रहा आसान ग़ालिब का

न कहिए यह कि तू क्या है ये अंदाज़े-अदावत है
ख़फ़ा इस गुफ़्तगू से है दिले-नादान ग़ालिब का

नहीं थी हाथ को जुंबिश तो ये आँखों का ही दम था रहा
पाँओं की लग्ज़िश से बचा ईमान ग़ालिब का

है लाया रंग सचमुच शोख़ फ़ाक़ामस्त वो पैकर 
न हो बेआबरू पाया ‘मधुर’ ऐलान ग़ालिब का