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"कोयल :कैक्‍टस : कवि / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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कुऊ...कुऊ...कु...!
 
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कुऊ...कुऊ...कु...!
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तुझे मर्मभेदी, दरर्दीला,
 
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दिशा-दिशा में
 
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अकुलाई है?
 
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अभी यहाँ से, अभी वहाँ से,
 
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गगन से जैसे उतरका
 
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निकट जाकर देखता हूँ
 
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एक अदभुत फूल काँटो में खिला है-
 
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"हाय, कैक्टस,
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दिवस में तुम खिले होते,
 
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रश्मियाँ कितनी
 
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तुम्हारी पंखुरियों पर
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पवन अपनी गोद में
 
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तुमको झुलाकर धन्य होता,
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गंध भीनी बाँटता फिरता द्रुमों में,
 
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भृंग आते,
 
भृंग आते,
 
 
घेरते तुमको,
 
घेरते तुमको,
 
 
अनवरत फेरते माला सुयश की,
 
अनवरत फेरते माला सुयश की,
 
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गुन तुम्हारा गुनगुनाते!"
गुन तुम्‍हारा गुनगुनाते!"
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धैर्य से सुन बात मेरी
 
धैर्य से सुन बात मेरी
 
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कैक्टस ने कहा धीमे से,
कैक्‍टस ने कहा धीमे से,
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"किसी विवशता से खिलता हूँ,
 
"किसी विवशता से खिलता हूँ,
 
 
खुलने की साध तो नहीं है;
 
खुलने की साध तो नहीं है;
 
 
जग में अनजाना रह जाना
 
जग में अनजाना रह जाना
 
 
कोई अपराध तो नहीं है।"
 
कोई अपराध तो नहीं है।"
 
  
 
'''कवि:'''
 
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"सबसे हटकर अलग
 
"सबसे हटकर अलग
 
 
अकेले में बैठ
 
अकेले में बैठ
 
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यह क्या लिखते हो?-
यह क्‍या लिखते हो?-
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काट-छाँट करते शब्दों की,
 
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काट-छाँट करते शब्‍दों की,
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सतरों में विठलाते उनको,
 
सतरों में विठलाते उनको,
 
 
लंबी करते, छोटी करते;
 
लंबी करते, छोटी करते;
 
 
आँख कभी उठकर
 
आँख कभी उठकर
 
 
दिमाग में मँडलाती है,
 
दिमाग में मँडलाती है,
 
 
और फिर कभी झुककर
 
और फिर कभी झुककर
 
 
दिल में डुबकी लेती है;
 
दिल में डुबकी लेती है;
 
 
पल भर में लगता
 
पल भर में लगता
 
 
सब कुछ है भीतर-भीतर-
 
सब कुछ है भीतर-भीतर-
 
 
देश-काल निर्बंध जहाँ पर-
 
देश-काल निर्बंध जहाँ पर-
 
 
बाहर की दुनिया थोथी है;
 
बाहर की दुनिया थोथी है;
 
 
क्षण भर में लगता
 
क्षण भर में लगता
 
 
अंदर सब सूनस-सूना-सूना,
 
अंदर सब सूनस-सूना-सूना,
 
 
सच तो बाहर ही है-
 
सच तो बाहर ही है-
 
 
एक दूसरे लड़ता, मरता, फिर जीता।
 
एक दूसरे लड़ता, मरता, फिर जीता।
 
 
अभी लग रहा
 
अभी लग रहा
 
 
कोई ऐसी गाँठ जिसे तुम बहुत दिनों से खोल रहे हो
 
कोई ऐसी गाँठ जिसे तुम बहुत दिनों से खोल रहे हो
 
 
खुल न रही है;
 
खुल न रही है;
 
 
अभी लग रहा
 
अभी लग रहा
 
 
कोई ऐसी काली
 
कोई ऐसी काली
 
 
जिसे तुम छू देते हो
 
जिसे तुम छू देते हो
 
 
खिल पड़ती है।"
 
खिल पड़ती है।"
 
  
 
"कवि हूँ,
 
"कवि हूँ,
 
 
जो सब मौन भोगते-जीते
 
जो सब मौन भोगते-जीते
 
 
मैं मखरित करता हूँ।
 
मैं मखरित करता हूँ।
 
 
मेरी उलझन में दुनिया सुलझा करती है-
 
मेरी उलझन में दुनिया सुलझा करती है-
 
 
एक गाँठ
 
एक गाँठ
 
 
जो बैठ अकेले खोली जाती,
 
जो बैठ अकेले खोली जाती,
 
 
उससे सबकी मन की गाँठें
 
उससे सबकी मन की गाँठें
 
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खुल जाती हैं;
:::खुल जात‍ी हैं;
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एक गीत
 
एक गीत
 
 
जो बैठ अकेले गाया जाता,
 
जो बैठ अकेले गाया जाता,
 
 
अपने मन की पाती
 
अपने मन की पाती
 
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दुनिया दुहराती है।"
:::दुनिया दुहराती है।"
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</poem>

22:44, 28 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

कोयल:
"तुझे
एक आवाज़ मिली क्या
तूने सारा आसमान ही
अपने सिर पर उठा लिया है-
कुऊ...कुऊ...कु...!
कुऊ...कुऊ...कु...!

तुझे मर्मभेदी, दरर्दीला,
मीठा स्वर जो मिला हुआ है,
दिशा-दिशा में
डाल-डाल में,
पात-पात में,
उसको रसा-बसा देने को
क्या तू सचमुच
अंत:प्रेरित
अकुलाई है?

या तू अपना,
अपनी बोली की मिठास का,
विज्ञापन करती फिरती है
अभी यहाँ से, अभी वहाँ से,
जहाँ-तहाँ से?"
वह मदमाती
अपनी ही रट
गई लगाती, गई लगाती, गई...

कैक्टस:
रात
एकाएक टूटी नींद
तो क्या देखता हूँ
गगन से जैसे उतरका
एक तारा
कैक्टस की झारियों में आ गिरा है;
निकट जाकर देखता हूँ
एक अदभुत फूल काँटो में खिला है-

"हाय, कैक्टस,
दिवस में तुम खिले होते,
रश्मियाँ कितनी
निछावर हो गई होतीं
तुम्हारी पंखुरियों पर
पवन अपनी गोद में
तुमको झुलाकर धन्य होता,
गंध भीनी बाँटता फिरता द्रुमों में,
भृंग आते,
घेरते तुमको,
अनवरत फेरते माला सुयश की,
गुन तुम्हारा गुनगुनाते!"

धैर्य से सुन बात मेरी
कैक्टस ने कहा धीमे से,
"किसी विवशता से खिलता हूँ,
खुलने की साध तो नहीं है;
जग में अनजाना रह जाना
कोई अपराध तो नहीं है।"

कवि:
"सबसे हटकर अलग
अकेले में बैठ
यह क्या लिखते हो?-
काट-छाँट करते शब्दों की,
सतरों में विठलाते उनको,
लंबी करते, छोटी करते;
आँख कभी उठकर
दिमाग में मँडलाती है,
और फिर कभी झुककर
दिल में डुबकी लेती है;
पल भर में लगता
सब कुछ है भीतर-भीतर-
देश-काल निर्बंध जहाँ पर-
बाहर की दुनिया थोथी है;
क्षण भर में लगता
अंदर सब सूनस-सूना-सूना,
सच तो बाहर ही है-
एक दूसरे लड़ता, मरता, फिर जीता।
अभी लग रहा
कोई ऐसी गाँठ जिसे तुम बहुत दिनों से खोल रहे हो
खुल न रही है;
अभी लग रहा
कोई ऐसी काली
जिसे तुम छू देते हो
खिल पड़ती है।"

"कवि हूँ,
जो सब मौन भोगते-जीते
मैं मखरित करता हूँ।
मेरी उलझन में दुनिया सुलझा करती है-
एक गाँठ
जो बैठ अकेले खोली जाती,
उससे सबकी मन की गाँठें
खुल जाती हैं;

एक गीत
जो बैठ अकेले गाया जाता,
अपने मन की पाती
दुनिया दुहराती है।"