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लक्ष्मण / सुमित्रानंदन पंत
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18:34, 8 जून 2010
वह सेवा कर्तव्य नहीं है
वह भीतर से स्वतः बही है
हार्दिकता की सरित
रहे
रही
है
जिससे निश्चित हरित मही है!
ऐसे भू के मानव लक्ष्मण
कभी गा सकूँ उनका जीवन,
अ
छू जिनके सेवा निरत चरण
बिछ जाते पथ शूल फूल बन!
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