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"नए वृन्त पर / गोबिन्द प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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− | |रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
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− | <poem>
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− | मुझे अच्छा नहीं लगेगा
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− | कि तुम मुझे याद करो
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− | मैं रेत हूँ अपने ही तन का
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− | और मन का क्या
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− | वह तो रौशनी के
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− | अणु में ढल
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− | अभी वह आईना बन रहा है
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− | जिसमें ज़माने का दर्द
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− | हज़ार हज़ार बाँहों वाला पौरूष
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− | और सदियों से बहती नदियों की सिसकी
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− | सागर की उमड़न बन
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− | सब खिलखिलाएंगे एक दिन
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− | आकाश के वृन्त पर
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− | जो धरती को बड़ी हसरत से तकता है
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− | मुझे अच्छा नहीं लगेगा
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− | कि तुम मुझे याद करो
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− | स्मृति की मोहिनी लता बन लिपटती है
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− | वह देह की नदी में भँवर बन के रहती है
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− | जो अचंचल लहरों के स्वर में प्रलय मचाती है
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− | मुझे अच्छा लगेगा
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− | कि हर बार एक नए मोड़ पर मिलें
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− | अजनबी अरूप की तरह
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− | नये-नये वृन्त पर खिलें
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− | साथ-साथ अलग-अलग पराग लिए
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− | भटकते हुए अगर कहीं मिलें
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− | तो सीने में आग लिए
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− | पुलक पड़ें
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− | शब्द से परे
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− | स्वर के समुद्र में
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− | नाद के उत्खनन में
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− | शिरा-शिरा में सृजन-संस्कार लिए
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− | मुझे अच्छा लगेगा
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− | कि हर बार एक नए मोड़ पर मिलें
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− | लेकिन सीने में आग लिए
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10:20, 3 जुलाई 2010 के समय का अवतरण