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"छूटे हुए संदर्भ / नवनीत पाण्डे" के अवतरणों में अंतर

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<poem>जहां पहुंच कर
 
<poem>जहां पहुंच कर
 
होंठ हो जाते हैं गूंगे
 
होंठ हो जाते हैं गूंगे

04:41, 28 सितम्बर 2011 का अवतरण

जहां पहुंच कर
होंठ हो जाते हैं गूंगे
आंखें अंधी और कान बहरे
समझ,नासमझ
और मन
अनमना
पूरी हो जाती है हद
हर भाषा की
अभिव्यक्ति बेबस
बंध, निर्बंध
संवेदन की इति से अथ तक
कविता, कहानी, उपन्यास
लेखन की हर विधा से बाहर
जो नहीं बंधते किसी धर्म,संस्कार,
समाज, देश, काल, वातावरण जाल में
नहीं बोलते कभी
किसी मंच, सभा, भीड़, एकांत,
शांत-प्रशांत में
भरे पड़े हैं
जाने कहां-कहां इस जीवन में
इसी जीवन के
छूटे हुए संदर्भ