भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"भगवान का उद्व्रजन / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
   
 
   
 
ऊब गए थे  
 
ऊब गए थे  
नगर-वासियों से,
+
नगरवासियों से,
 
नफ़रत हो गई थी  
 
नफ़रत हो गई थी  
 
इन्सानों से,
 
इन्सानों से,
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
 
दुर्गम वनों, रेगिस्तानों में,
 
दुर्गम वनों, रेगिस्तानों में,
 
बनाने लगे थे अपने घर  
 
बनाने लगे थे अपने घर  
हिम कंदराओं, पथरीली गुफाओं में,
+
हिम कंदराओं, पथरीली गुफाओं में  
 
और सागर-महासागर के मध्यस्थ,
 
और सागर-महासागर के मध्यस्थ,
 
रहने लगे थे  
 
रहने लगे थे  
पंक्ति 38: पंक्ति 38:
 
बुढापा, बीमारी और दैहिक तापों पर  
 
बुढापा, बीमारी और दैहिक तापों पर  
 
होकर सवार
 
होकर सवार
चल पड़ते हैं हजारों मेल--
+
चल पड़ते हैं हजारों मील--
 
दुर्भेद्य उत्तल-अवतल मार्गों पर  
 
दुर्भेद्य उत्तल-अवतल मार्गों पर  
 
सिसकारियों को मुंह में दबोचे
 
सिसकारियों को मुंह में दबोचे
पंक्ति 46: पंक्ति 46:
  
 
आखिर, क्यों भगवान
 
आखिर, क्यों भगवान
त्रास देने लगा दूर जाकार,
+
त्रास देने लगा दूर जाकर,
अपनी भाविताव्यता-संभाव्यता से  
+
अपनी भावितव्यता-संभाव्यता से  
छल-प्रपंच कर्के,
+
छल-प्रपंच करके,
 
अपनी दिव्यता की चकाचौंध से  
 
अपनी दिव्यता की चकाचौंध से  
 
आमन्त्रित करने लगा उसे  
 
आमन्त्रित करने लगा उसे  
  
 
आह!
 
आह!
इतनी! इतनी!! दूर से  
+
इतनी! इतनी दूर से!!
 
खेलता है भगवान हमसे!!!
 
खेलता है भगवान हमसे!!!
 
धकेल देता है--
 
धकेल देता है--
पंक्ति 68: पंक्ति 68:
 
भर लेता है अपना पेट
 
भर लेता है अपना पेट
 
मानावाहुति से--
 
मानावाहुति से--
दिर्घायु के कामनार्थियों को  
+
दीर्घायु के कामनार्थियों को  
 
अल्पायु के शूलों वाले खड्ड में  
 
अल्पायु के शूलों वाले खड्ड में  
 
अकस्मात् धकेलकर  
 
अकस्मात् धकेलकर  
पंक्ति 80: पंक्ति 80:
 
लुढकाता रहेगा  
 
लुढकाता रहेगा  
 
उल्काएं हमारी ओर,
 
उल्काएं हमारी ओर,
फिर भी, हम प्रार्थना करते रहेंगे
+
फिर भी हम प्रार्थना करते रहेंगे
 
उसमें शत-प्रतिशत ध्वंसात्मक ईश्वरत्त्व से,
 
उसमें शत-प्रतिशत ध्वंसात्मक ईश्वरत्त्व से,
 
एक सच्चे झूठ से  
 
एक सच्चे झूठ से  

14:50, 8 जुलाई 2010 के समय का अवतरण


भगवान का उद्व्रजन
 
वे भगवान थे...
हां, भगवान ही तो थे
 
ऊब गए थे
नगरवासियों से,
नफ़रत हो गई थी
इन्सानों से,
तब, चढ़ने लगे थे
ऊंचे-ऊंचे हत्यारे पहाड़,
भागने लगे थे
दुर्गम वनों, रेगिस्तानों में,
बनाने लगे थे अपने घर
हिम कंदराओं, पथरीली गुफाओं में
और सागर-महासागर के मध्यस्थ,
रहने लगे थे
जंगली जानवरों की पहरेदारी में,
छिपने लगे थे
घटा-छेदक पेड़ों की शाखाओं पर
 
क्यों ऊबने लगे थे
अपने अन्धभक्तों से वे
जो उनके दर्शन-सुख के लिए
अनुप्रस्थ भेद देते रहे हैं
नदी-नाले, पर्वत-पठार
और उत्तुंग शिखर,
बावले हो
उनके भजन-कीर्तन गाते
बुढापा, बीमारी और दैहिक तापों पर
होकर सवार
चल पड़ते हैं हजारों मील--
दुर्भेद्य उत्तल-अवतल मार्गों पर
सिसकारियों को मुंह में दबोचे
और टींसते घुटनों में
इच्छाशक्ति की करेन्ट का
झटका देकर

आखिर, क्यों भगवान
त्रास देने लगा दूर जाकर,
अपनी भावितव्यता-संभाव्यता से
छल-प्रपंच करके,
अपनी दिव्यता की चकाचौंध से
आमन्त्रित करने लगा उसे

आह!
इतनी! इतनी दूर से!!
खेलता है भगवान हमसे!!!
धकेल देता है--
पहाड़ों के नीचे
जमीन खिसकाकर
पैरों तले से--
भू-स्खलन भूस्खलन खेलकर,
या, कर देता है--
बादल-विस्फोट हम पर,
दौड़ा देता है--
तूफानों के खौफनाक घोड़े,
सत्संगी पंडालों को
अग्निवेदी बनाकर,
भर लेता है अपना पेट
मानावाहुति से--
दीर्घायु के कामनार्थियों को
अल्पायु के शूलों वाले खड्ड में
अकस्मात् धकेलकर

उसकी ध्वंस-क्रीड़ा से
कौन रोक सकेगा उसे?


वह शून्य से शून्य तक
यानी, अनन्त, अज्ञेय काल तक
लुढकाता रहेगा
उल्काएं हमारी ओर,
फिर भी हम प्रार्थना करते रहेंगे
उसमें शत-प्रतिशत ध्वंसात्मक ईश्वरत्त्व से,
एक सच्चे झूठ से
सत्य होने का
गुहार-मनुहार करते रहेंगे--
पूरी श्रद्धा और कर्मकांडों से.