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"आखिर कब तक / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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पाठशालाओं में
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बच्चों से प्रार्थना कराकर
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भगवान को बताओगे--
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बची-खुची कबीर की
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काल-परीक्षित साखियाँ
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धर्मं-ग्रंथों की प्रतियां,
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खंडित करोगे
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श्रमण देवों की मूर्तियाँ,
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थमाओगे निरीह हाथों में
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झगड़ातुर झंडे
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और कतराओगे मध्यम मार्ग से?
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क्यों बदलोगे
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काल के पन्नों पर दर्ज
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सांस्कृतिक नगरों के नाम,
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झुठलाओगे ऐतिहासिक हस्तियाँ,
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मिटाओगे युगाक्षर-अंकित दस्तावेज़
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और याद दिलाओगे
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नगर-वीथियों पर पड़े
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सवर्ण देवताओं के नाम
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जो काठ के फ्रेमों
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और पथरीले बुतों से
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रिहा न हो पाए
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आज तक?
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तब क्यों नहीं खुदावाओगे
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मदिरालयों और शौचालयों पर
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श्लोक, स्तुतियाँ और ऋचाएं,
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क्यों नहीं करवाओगे
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अर्चना-यज्ञ-अनुष्ठान
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कसाईखानों में
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जहां से आयातित होता है--
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तुम्हारी किचन के लिए
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जानदार कच्चा माल,
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क्यों नहीं छपवाओगे
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अपने होठ-लगे जामों पर
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देवियों की कामुक मुद्राएं?
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कहो
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कबा तक रौंदोगे
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वैश्यालय में अपनी बेटियों को,
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दुतकारोगे माँ-सरीखी सेविकाओं को,
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पूजोगे गाय, गोमूत्र और गोबर
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चुराकर मज़बूर मज़दूरों की मजूरी,
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चढ़ाओगे मंदिरों में
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मिष्ठान्न और रत्नाभूषण,
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कब तक छिछियाओगे
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तुम्हारे कारण
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नाबदानों में रेंगने को लाचार
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पशुतुल्य इंसानों को--
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'म्लेच्छ', 'अनार्य' और 'दस्यु'?
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कहो
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कब तक समझाओगे
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पताकाओं के मासूम रंगों के
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मानवभक्षी अर्थ,
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धर्मांतरण के महाचक्रवात से
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झंकझोरोगे रसातल तक
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इस महादेश की झकड़ी जड़ें,
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घुनियाओगे मानवीय संबंध
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और छलोगे
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इस दीन-दरिद्र देश की
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अटकती सांसों
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और सीलन-लगी ऊर्जा को,
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कब तक
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आखिर कब तक?

12:45, 9 जुलाई 2010 के समय का अवतरण


आखिर कब तक

कहो
रक्तपिपासु उन्माद के पम्पों से
ककहरों की ट्यूब में
कब तक भरोगे
देवी भ्रम की हवा,
पाठशालाओं में
बच्चों से प्रार्थना कराकर
भगवान को बताओगे--
'अस्पृश्य है खुदा और गाड?'

कहो
कब तक जलाओगे
बची-खुची कबीर की
काल-परीक्षित साखियाँ
धर्मं-ग्रंथों की प्रतियां,
खंडित करोगे
श्रमण देवों की मूर्तियाँ,
थमाओगे निरीह हाथों में
झगड़ातुर झंडे
और कतराओगे मध्यम मार्ग से?

क्यों बदलोगे
काल के पन्नों पर दर्ज
सांस्कृतिक नगरों के नाम,
झुठलाओगे ऐतिहासिक हस्तियाँ,
मिटाओगे युगाक्षर-अंकित दस्तावेज़
और याद दिलाओगे
नगर-वीथियों पर पड़े
सवर्ण देवताओं के नाम
जो काठ के फ्रेमों
और पथरीले बुतों से
रिहा न हो पाए
आज तक?

तब क्यों नहीं खुदावाओगे
मदिरालयों और शौचालयों पर
श्लोक, स्तुतियाँ और ऋचाएं,
क्यों नहीं करवाओगे
अर्चना-यज्ञ-अनुष्ठान
कसाईखानों में
जहां से आयातित होता है--
तुम्हारी किचन के लिए
जानदार कच्चा माल,
क्यों नहीं छपवाओगे
अपने होठ-लगे जामों पर
देवियों की कामुक मुद्राएं?

कहो
कबा तक रौंदोगे
वैश्यालय में अपनी बेटियों को,
दुतकारोगे माँ-सरीखी सेविकाओं को,
पूजोगे गाय, गोमूत्र और गोबर
चुराकर मज़बूर मज़दूरों की मजूरी,
चढ़ाओगे मंदिरों में
मिष्ठान्न और रत्नाभूषण,
कब तक छिछियाओगे
तुम्हारे कारण
नाबदानों में रेंगने को लाचार
पशुतुल्य इंसानों को--
'म्लेच्छ', 'अनार्य' और 'दस्यु'?

कहो
कब तक समझाओगे
पताकाओं के मासूम रंगों के
मानवभक्षी अर्थ,
धर्मांतरण के महाचक्रवात से
झंकझोरोगे रसातल तक
इस महादेश की झकड़ी जड़ें,
घुनियाओगे मानवीय संबंध
और छलोगे
इस दीन-दरिद्र देश की
अटकती सांसों
और सीलन-लगी ऊर्जा को,
कब तक
आखिर कब तक?