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"एक कली / अमोघ" के अवतरणों में अंतर
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+ | थी खड़ी कली, अधखिली कली, | ||
+ | रसभरी कली । | ||
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+ | आया कोई मधु का लोभी । | ||
+ | गुन-गुन करता | ||
+ | मधु पी-पीकर | ||
+ | पागल बनता । | ||
+ | फिर भी प्यासा, फिर भी आशा, | ||
+ | वह हाथ बढ़ा, आगे उमड़ा । | ||
+ | कुछ कह-सुनकर | ||
+ | फिर मिला ओठ | ||
+ | रस पी-पीकर | ||
+ | गुनगुना उठा वह पंख उठा । | ||
+ | पंखों के हिलडुल जाने से | ||
+ | कुछ इधर झड़े | ||
+ | कुछ उधर पड़े | ||
+ | वे परिमल कण | ||
+ | या आभूषण ! | ||
+ | हिल उठी कली, वह फिर सम्हली | ||
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+ | पर मौन खड़ी वह रह जाती | ||
+ | कितना निष्ठुर, | ||
+ | कितना निर्मम ! | ||
+ | कितनी मस्ती !! | ||
+ | कितनी जल्दी !!! | ||
− | + | '''रचनाकाल''' : पहली प्रकाशित रचना, विश्वमित्र साप्ताहिक, फरवरी 1945 | |
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15:26, 2 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
थी खड़ी कली, अधखिली कली,
रसभरी कली ।
जब विहँस पड़ी, तब निखर उठी,
आया कोई मधु का लोभी ।
गुन-गुन करता
मधु पी-पीकर
पागल बनता ।
फिर भी प्यासा, फिर भी आशा,
वह हाथ बढ़ा, आगे उमड़ा ।
कुछ कह-सुनकर
फिर मिला ओठ
रस पी-पीकर
गुनगुना उठा वह पंख उठा ।
पंखों के हिलडुल जाने से
कुछ इधर झड़े
कुछ उधर पड़े
वे परिमल कण
या आभूषण !
हिल उठी कली, वह फिर सम्हली
वह अब भी कुछ-कुछ थहराती
उड़ गया मधुप अति दूर-दूर
पर मौन खड़ी वह रह जाती
कितना निष्ठुर,
कितना निर्मम !
कितनी मस्ती !!
कितनी जल्दी !!!
रचनाकाल : पहली प्रकाशित रचना, विश्वमित्र साप्ताहिक, फरवरी 1945