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बाढ़ / ओमप्रकाश सारस्वत

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{{KKRachna shabdon ke spunt mein| omprakash sarswatरचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वतBadh.Jahan aadamiaadami ke khilafIstemal hone lag jayeJahan manavPashuta dhone lag jayeWahan aadami ko aadami Aor pashu ko pashuta kehanaBhi bemani haiYeh shabdon ko Shabdon ke mathey bher marna haiArthahin aatma kid eh per| संग्रह=शब्दों के संपुट में / ओमप्रकाश सारस्वतAaj jabki shabd}}Brahm hone ko tayar nahein<poem>सोयी हुई बस्ती पर जबीTab main अचानक आक्रमण होता है बाढ़ काShabd ko kaise rok sakta hoonशहर के तमाम अखबार तभीJabki main aapko bhi to tok nahein sakta kiखबरों कोShano ke sangविध्वंस के अभियान की तरहBister per khelana aor bat haiप्रचारित करते हुएAor manushyon ke sathप्रलयकाल के द्र्ष्टा की तरहDharati per sona aor bat सत्य को शास्त्रों की शैली में कहते हैं
जो सृष्टि का कोमलता पदार्थ है
जगती का वही क्रूरतम यथार्थ है
काल जब चाहे
किसी के किए-कराए पर
पानी फेर सकता है
वैसे सोना खेलते नगरोंऔर मोती पहनी संस्कृतियों को कैसे उजाड़ती है बाढ़ यह,या तो कोई प्राचीन खण्डहरया धरती की परतों में सोईकोई पुरातात्विक गाथा ही बता सकती है किंतु,चिंतक कहते हैंबाढ़, सदा खुद ही नहीं आतीवह बुलाई भी जाती हैजब हम किसी भी चीज़ की अति को रोक नहीं पातेतब उसकी गति ही प्रलय बनकरनिगल जाती हैसारहीन व्यक्तित्व वाले किनारों को गिरते वृक्षों के बेमतलब अवरोधों के बावजूद और कभी यही बाढ़ हमारे विवेक के बोधि वृक्ष को ढकारहमारे तमाम विश्वसनीय सम्बंधों को कीचड़ करकेबाड़वाग्नि की तरह सत् के सिन्धु कोघी के समुद्र की तरह पी जाती है गटागट हम बहुत बारबाढ़ को उतर जाने वाला जल समझ करबालू पर किश्ती की तरह बेखटके बैठ जाते हैं और जब बह जाते हैं शायद त्अब सोचते हैं किबालू का आधार आखिर किश्ती नहीं हो सकता था मेरे दादा जी कहते थे किबाढ़ सदा 'मत्स्यन्याय, की चरम परिणति का परिणाम होती है मेरे पिता जी सुनाते हैं कि त्रेता और द्वापर में जब-जब भी बाढ़ का प्रसंग आया हैशम्बूक ने अपनी द्विजात्वप्राप्ति का मूल्योपहारसिर देकर चुकाया हैऔर एकलव्य ने धनुषप्रवीणता की दक्षिणा हेतुअंगूठे के सिर क्ई तरह काटकरपक्षपाती गुरू के चरणों पर चढ़ाया है उनका मत है कि त्रेता और द्वापर मेंश्री राम और श्री कृष्ण के राज को अविवेक और पक्षपात की बाढ़ ने ही निगला थासरयू और यमुना तोतब से अब तलक उन्हीं घाटों के मध्य बह रही हैं।मित्र! मैं यहाँ कई बरसों से सुन रहा हूँ कि इस बरस बाढ़ को ईख के किसी खेत में घुसने नहीं दिया जाएगा किसी पकी बाली को खुसने नहीं दिया जाएगासर्वत्र मंगल ही मंगल होगासारे पोखरों तालाबों का जलगंगाजल होगा पर उदघोषणा चल ही रही होती है किबाढ़ आ जाती है और वह तत्काल बहा के ले जाती है हमारे सारे गन्नों की मिठाअस हमारे सारे पन्नों के स्वप्न  तब मैं लाऊडस्वीकर तथा रेडियो परसुनता हूँ यथाभ्यासे किबाढ़ इस साल भी मानी नहीं उसने किसी की कोई कीमत जानी नहींवह समस्त जननायकों केरात-दिन समझाने पर भीइस बार भी जाती हई दे गई चेतावनी कि तुम कितने ही सुनाओ मुझे येरामायण में सिन्धु क्ओ बाँधने के लटकेपर जब तलक तुम मेरे मार्ग में विवेक के आल्पस नहीं खड़ा कर दोगे;अपनी सोच को हिमालय से बड़ा नहीं कर लोगेतब तलक मैं इसी तरह आती रहूँगी बेरोक-टोकऔर ढाती रहूँगी तुम्हारे बांधनुओं को मिट्टी के घरौंदों की तरह, शतबार ताकि हो सकता है एक दिन तुम गीता को पूजा घर में पढ़ना छोड़ जीवन के रणांङण में'युद्धाय कृत निश्चय:' होकरविगतश्रम हो कर, पढ़ने लग जाओ और स्वार्थ के गृहद्वेषी कौरवों से सतत् लड़ने लग जाओ</poem>Mukesh Negi
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