"एक ही दफे नहीं / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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+ | रचनाकाल: १२-०४-१९७९ | ||
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00:21, 18 अक्टूबर 2010 का अवतरण
एक ही दफे नहीं-
कई-कई दफे देखा है मैंने उसे।
जब-जब देखा है मैंने उसे-
लकदक लिबास में देखा है मैंने उसे।
काफी हाउस में देखा है मैंने उसे;
गुलगपाड़े में गुलगपाड़ा करते
देखा है मैंने उसे।
यह सच है कि
जो उसे सिगरेट पिलाता है
वह उसे
मंत्री कहकर पुकारता है,
क्योंकि वह
धुँए के धुँधलके में रहने से
तमाम-तमाम निजी तकलीफों में
निजात पाता है;
मेहनत-मशक्कत से बच जाता है।
यह भी सच है कि
जो उसे काफी पिलाता है
वह उसे
मुख्यमंत्री कहकर पुकारता है,
क्योंकि वह
काफी पीने के बाद
गुमराह हो जाने में सुख पाता है;
गलत-सही में उसे
कुछ फर्क नजर नहीं आता-
और वह
पिलाने वाले का अभिप्राय
कतई नहीं समझ पाता।
यह भी परम सच है कि
जो उसे डिनर मे बुलाता
और सिनेमा दिखाता है,
वह उसे
प्रधानमंत्री कहकर पुकारता है
और तारीफ पर तारीफ के उसके
रंग-बिरंगे गुब्बारे
जमीन से आसमान में पहुँचाता है,
और अधेड़ उम्र में,
अबोध बच्चे की तरह
देख-देखकर उन्हें,
उनकी उड़ान में उड़ा चला जाता है,
सौभाग्य के स्वर्ग में पहुँचकर
खिलखिलाता है।
यह भी परम सच है कि
उसे कोई फर्क नहीं मालूम होता
काफी हाउस के अधिवेशन
और
लोकसभा के अधिवेशन में
क्योंकि
एक ही तरह के-एक ही मनोवृत्ति के लोग
इन दोनों जगहों में होते हैं;
वही इन जगहों में एक जैसे होहल्ले के
कारण होते हैं।
रचनाकाल: १२-०४-१९७९