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"संसार : नियति / गिरिराज शरण अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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पीड़ा के अभिशाप व्याल-से  
 
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काल-भाल को डसते जाते  
 
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और आह के अथाह स्रोत
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इस अंतस्तल में
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श्वासों के बड़वानल के मिस
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दर्दीले तूफ़ान मचलते ।
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समय बदलता रहा  
 
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प्रगति भी सदा रही है,
 
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इसमें कड़वे औ' मीठे
 
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सब फल उगते हैं ।
 
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मीठा-मीठा स्वाद  
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सदा ही कुछ पाते हैं
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कुछ को केवल
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कड़वे फल ही मिल पाते हैं ।
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:::कड़वे फल ही मिल पाते हैं ।
 
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10:53, 25 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

मधुस्नेह हो गया स्वप्नमय
भाव हृदय के सूने घट में
हो विलीन सब
दुख के राग सुनाते गाते
पीड़ा के अभिशाप व्याल-से
काल-भाल को डसते जाते
और आह के अथाह स्रोत
इस अंतस्तल में
श्वासों के बड़वानल के मिस
दर्दीले तूफ़ान मचलते ।
समय बदलता रहा
प्रगति भी सदा रही है,
रहे बदलते मीत, बंधु
सारे प्रेमीजन
पर यह वसुधा वही रही है ।
इसमें कड़वे औ' मीठे
सब फल उगते हैं ।
मीठा-मीठा स्वाद
सदा ही कुछ पाते हैं
कुछ को केवल
कड़वे फल ही मिल पाते हैं ।