"दस दोहे (91-100) / चंद्रसिंह बिरकाली" के अवतरणों में अंतर
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= चंद्रसिंह बिरकाली |संग्रह=बादली / चंद्रसिंह बि…) |
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 27: | पंक्ति 27: | ||
म्हांनै इतरो मोकळो आंखडल्यां रो चोर।। 94।। | म्हांनै इतरो मोकळो आंखडल्यां रो चोर।। 94।। | ||
− | बादलियों, हम तुम से विनय करती है कि चंद्रमा की तनिक तिरछी सी कोर दिखा दो। उस आंखों के चोर का इतना सा दर्शन | + | बादलियों, हम तुम से विनय करती है कि चंद्रमा की तनिक तिरछी सी कोर दिखा दो। उस आंखों के चोर का इतना सा दर्शन ही हमें पर्याप्त होगा। |
− | ही हमें पर्याप्त होगा। | + | |
चांद छिपायो बाद्ळयां धरा गमायो धीर। | चांद छिपायो बाद्ळयां धरा गमायो धीर। |
14:12, 25 नवम्बर 2010 का अवतरण
च्यारू कूंटां घेरियो चांदो वादळियां।
जाण गळूंडो मारियां बैठी वीजळियां।। 91।।
चारों ओर से बादलियों द्वारा घिरा हुआ चंद्रमा ऐसा लगता है मानों बिजलियां गोलाकार बनाये बैठी हों।
बारी-बारी बादळ्यां वणै पालकी आय।
मुळक चढ़ै उण ऊपरां चांदो जी हरखाय।। 92।।
बादलियां बारी-बारी से आकर पालकियां बनती है और चन्द्रमा हृदय में हर्षित हो मुसका कर उन पर चढ़ता है।
चूसी किरणां चोज सूं आभै पड़ता आज।
टुग-टुग जोवै चोथणी बादळियां रै राज।। 93।।
आज आकाश में उदय होते हुए चन्द्रमा की किरण को बादलियो ने प्रसन्नता से आत्मसात् कर लिया। चौथ का व्रत करने वाली स्त्रियां बादलियों के राज में चंद्रदर्शन के लिए टुकुर-टुकुर देख रही है ।
विनवां थांसू बादळयां खोलो खांडी कोर।
म्हांनै इतरो मोकळो आंखडल्यां रो चोर।। 94।।
बादलियों, हम तुम से विनय करती है कि चंद्रमा की तनिक तिरछी सी कोर दिखा दो। उस आंखों के चोर का इतना सा दर्शन ही हमें पर्याप्त होगा।
चांद छिपायो बाद्ळयां धरा गमायो धीर।
सुरंगी साड़ी ऊपरां ओढ़यो सांवळ चीर।। 95।।
बादलियों ने चन्द्रमा को छिपा लिया है जिससे धरा का धैर्य जाता रहा है। इसलिए उसने अपनी सुरंगी साड़ी पर अंधकार का श्यामल चीर ओढ़ लिया है।
ऊंची काळी बादळी चंदै चढ़ ली सांस।
सोनो परखण पारखी धर्यो कसौटी हांस।। 96।।
ऊंची काली बादली पर चढ़ कर चन्द्रमा ने सांस ली, मानो पारखी ने सोने की हंसुली को परखने के लिय कसौटी पर रखा हो।
चांद विलूंबी बादळ्यां कर-कर मन में चाव।
मुळकै मिल-मिल मोद में पळ-पळ नवलो भाव ।। 97।।
बादलियां मन में चाव कर-कर चंद्रमा से लिपट गई। वह भी उनसे मिल कर आनन्द से मुसकाने लगा और पल पल में नवीन भाव दिखाने लगा।
बादळियां आभो घिरयो बिच-बिच चांद सुहाय।
लुक-मिचणी लाग्यो रमण मुळक-मुळक मन माय।। 98।।
बादलियों से आकाश घिरा हुआ है और बीच-बीच में चंद्रमा सुशोभित है। मन में प्रसन्न होकर वह आंखमिचौनी खेलने लग गया है।
आयी घणी अडिकतां रही दिनां दो च्यार।
बरसी ठाळां ठाळियां पाछी पिछवा त्यार।। 99।।
बहुत प्रतिक्षा के बाद बादली आई, दो चार दिन रही और जंहा-तंहा बरसी। अब फिर पश्चीम की पवन चलने लगी ।
धर जळधारा लेण न खड़ी मौन धरियां।
पाछी पिछवा बाजतां पंच-धूणी ततियां।। 100।।
धरा जलधारा में स्नान करने के लिये मौन धारे खड़ी है। फिर पष्चिमी पवन चलते ही पंचाग्नि तप करने लगी।