{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=प्रदीप मिश्र|संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>'''नक्षत्र में बदल गया बूढ़ा कवि'''
(एक)
बहुत बड़ा कवि था
जन कवि जनकवि
उसके काव्यलोक में
समायी समाई हुई है, पृथ्वी
वह खुद भी समा गया
अपने काव्यलोक में
हमारे बीच
जैसे हमारे बीच रहतीं हैं
लोक कथाएं। कथाएँ ।
एक बूढ़ा कवि
जिसकी सफेद सफ़ेद झक दाढ़ी में
गुम हो गया था काला रंग
शनि को काड़ते हुए
कॉख काँख में वृहस्पति बृहस्पति को दबाएसूरज की तरफ तरफ़ निकल गया
नक्षत्र में बदल गया
एक बूढ़ा कवि। कवि ।
</poem>