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{{KKRachna
|रचनाकार=रामनरेश त्रिपाठी
|संग्रह=मानसी / रामनरेश त्रिपाठी
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बाजे अस्तोदय की वीणा--क्षण-क्षण गगनाँगन गगनांगण में रे,रे।::हुआ प्रभात छिप गए तारे, ::संध्या हुई भानु भी हारे,यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे । रे॥::ह्रास-विकास विलोक इंदु में, ::बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे ।रे॥::ऐसी ही गति तेरी होगी, ::निश्चित है क्यों देरी होगी,गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे । रे॥ ::निश्चय करके फिर न ठहर तू, ::तन रहते प्रण पूरण कर तू,विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे ? 
</poem>
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