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तुलसीदास / परिचय

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/* जन्म */
==जन्म==
प्रयाग के पास चित्रकूट जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है, वहाँ आत्माराम दूबे नामके एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत १५५४ की श्रावण शुकला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान्‌ दम्पति के यहाँ बारह महीने तक गर्भ में रहने के पश्चात् गोस्वामी जी का जन्म हुआ ।
 
बचपन
इधर भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ( उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ १५६१ माघ शुकला पञ्चमी शुक्रवारको उसक यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्याही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धी बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हे वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहाँ श्रीनरहरी जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदाङ्ग का अध्यन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमी को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान्‌ राम की कथा सुनाने लगे।
 
सन्यास
संवत्‌ १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरुवारको भारद्वाज गोत्र की एक सुन्दरी कन्याके साथ उनका विवाह हुआ और वे सुखपूर्वक अपनी नवविवाहिता वधूके साथ रहने लगे। एक बार उनकी स्त्री भाईके साथ अपने मायके चली गयी। पीछे-पीछे तुलसीदासजी भी वहाँ जा पहुँचे। उनकी पत्नीने इसपर उन्हें बहुत धिक्कारा और कहा कि 'मेरे इस हाड़-मांसके शरीरमें जितनी तुमहारी आसक्ती है, उससे आधी भी यदि भगवान्‌में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता'।
 
तुलसीदासजीको ये शब्द लग गये। वे एक क्षण भी नहीं रुके, तुरंत वहाँसे चल दिये। वहाँसे चलकर तुलसीदासजी प्रयाग आये। वहाँ उन्होंने गृहस्थवेशका परित्याग कर साधुवेश ग्रहण किया। फिर तीर्थाटन करते हुये काशी पहुँचे। मानसरोवर के पास उन्हें काकभुशुण्डि के दर्शन हुए।
 
श्रीरामसे भेंट
काशी में तुलसीदास जी रामकथा कहने लगे। वहाँ उन्हें एक दिन एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्रीरघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्राथना की। हनुमान ‌जी ने कहा, 'तुम्हे चित्रकूट में रघुनाथ जी दर्शन होंगे।' इसपर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
 
चित्रकूट पहुँचकर राम घाट पर उन्होंने अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे। मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास जी उन्हें देखकर मुग्ध हो गये, परंतु उन्हें पहचान न सके। पीछे से हनुमान ‌जी ने आकर उन्हें सारा भेद बताया तो वे बड़ा पश्चाताप करने लगे। हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
 
संवत्‌ १६०७ की मौनी अमावस्या बुधवार के दिन उनके सामने भगवान्‌ श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालकरूप में तुलसीदास जी से कहा-बाबा! हमें चन्दन दो। हनुमान ‌जी ने सोचा, वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा-
 
 
चित्रकूट के घाट पर भयि संतन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर॥
 
 
तुलसीदास जी उस अद्भुत छवि को निहारकर शरीर की सुधि भूल गये। भगवान ‌ने अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्धान हो गये।
==बचपन==
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