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|रचनाकार=कन्हैयालाल नंदन
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<poem>
किसी नागवार गुज़रती चीज पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना,
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमज़ोरी नहीं है
मैं जिंदा हूं
इसका घोषणापत्र है
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर
धड़क रही है-
यह सारे संसार को बताती हैं।
शायद इसीलिए जब दर्द उठता है
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
वरना
देर क्या लगती है
पत्थर होकर ईश्वर बन जाने में
दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
किसी नागवार गुज़रती चीज पर<br>अगर कुबूल हो आदमी कोपत्थर बनकरमेरा तड़प कर चौंक जानासदियों तक जीने का दर्द सहनाबेहिस,<br>उबल कर फट पड़ना<br>संवेदनहीन,या दर्द निष्पंद……बड़े से छटपटाना<br>बड़े हादसे परकमज़ोरी नहीं है<br>समरस बने रहनामैं जिंदा हूं<br>सिर्फ देखना और कुछ न कहनाइसका घोषणापत्र ओह कितनी बड़ी सज़ा है<br>लक्षण है इस अक्षय सत्य का<br>ऐसा ईश्वर बनकर रहना!कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी<br>ये चिंगारियां हैं उसी नहीं,मुझे ईश्वरत्व की<br>असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्दजो यदा कदा बाहर आती हैं<br>और<br>जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर<br>धड़क रही है-<br>यह सारे संसार को बताती हैं।<br><br>कदापि नहीं सहना।
शायद इसीलिए जब दर्द उठता है<br>तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं<br>भरपूर चिल्लाता हूं<br>और इस कबूल मुझे कि एक तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं<br>वरना<br>देर क्या लगती है<br>पत्थर मृत्यु का पर्याय होकर ईश्वर बन जाने में<br>रहूंदुनिया बड़ी माहिर है<br>आदमी को पत्थर बनाने और भीड़ के सैलाब में<br>अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास<br>जो चारणी प्रशस्ति गान से<br>आराधना तक जाती हैं<br>उसे पत्थर बना कर पूजती हैं<br>और पत्थर की तरह सदियों जीने का<br>सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।<br><br>चुपचाप बहूं।
अगर कुबूल हो आदमी इसीलिये किसी को<br>टुच्चे स्वार्थों के लियेपत्थर बनकर<br>मेमने की तरह घिघियाते देखसदियों तक जीने का दर्द सहना<br>अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूंबेहिस,<br>क्रोध में सूरज की जलता हूंसंवेदनहीन,<br>यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरहनिष्पंद……<br>मेरे सारे अक्षांश और देशांतरबड़े रक्तिम हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बानेफरकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंखमेरी समूची लंबाईमेरे ही अंदर कद से बड़े हादसे पर<br>लंबी होकरसमरस बने रहना<br>छिटकने लग जाती हैसिर्फ देखना ….और कुछ न कहना<br>मेरी आवाज मेंओह कितनी बड़ी सज़ा कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है<br>ऐसा ईश्वर बनकर रहना!<br>नहींयह सब कुछ न पागलपन है,मुझे ईश्वरत्व न उन्मादयह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्द<br>निशानीकदापि यह कोई बुखार नहीं सहना।<br><br>हैजो सुखाकर चला आयेगामेरे अंदर का पानी!
नहीं कबूल मुझे क्या तुम चाहते होकि एक तरह कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से मृत्यु का पर्याय होकर रहूं<br>रोक देऔर भीड़ मैं कुछ न बोलूं?कोई मुझे अनिश्चय के सैलाब अधर में<br>दिशाहीन लटका कर छोड़ देऔर मैं अपना लटकनाचुपचाप बहूं।<br><br>देखता रहूंमुंह तक न खोलूं!
इसीलिये किसी को टुच्चे स्वार्थों के लिये<br>मेमने की तरह घिघियाते देख<br>अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूं<br>क्रोध में सूरज की जलता हूं<br>नहीं, यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरह<br>मेरे सारे अक्षांश और देशांतर<br>रक्तिम मुझसे हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बाने<br>नहीं पायेगाफरकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख<br>मेरी समूची लंबाई<br>क्योंकि मैं जानता हूंमेरे ही अंदर कद से लंबी होकर<br>छिटकने लग जाती बंद है<br>ब्रह्मांड का आदिपिंड….और मेरी आवाज में<br>आदमी का आदमीपन,कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है<br>इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगायह सब कुछ न पागलपन है, न उन्माद<br>जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों परअंकुश लगाया जायेगायह है सिर्फ मेरे जिंदा होने जब भी किसी ममता की निशानी<br>आंखों में आंसू छलछलायेगायह कोई बुखार नहीं है<br>जो सुखाकर चला आयेगा<br>तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूंमेरे अंदर का पानी!<br><br>बंद वह जिंदा आदमीइसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।
क्या तुम चाहते हो<br>कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से रोक दे<br>और मैं कुछ न बोलूं?<br>कोई मुझे अनिश्चय के अधर में<br>दिशाहीन लटका कर छोड़ दे<br>और मैं अपना लटकना<br>चुपचाप देखता रहूं<br>मुंह तक न खोलूं!<br><br> नहीं, यह मुझसे हो नहीं पायेगा<br>क्योंकि मैं जानता हूं<br>मेरे अंदर बंद है ब्रह्मांड का आदिपिंड<br>आदमी का आदमीपन,<br>इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा<br>जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों पर<br>अंकुश लगाया जायेगा<br>जब भी किसी ममता की आंखों में आंसू छलछलायेगा<br>तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूं<br>मेरे अंदर बंद वह जिंदा आदमी<br>इसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।<br><br> जरूरी नहीं है,<br>कतई जरूरी नहीं है<br>इसका सही ढंग से पढ़ा जाना,<br>जितना ज़रूरी है<br>किसी नागवार गुजरती चीज़ पर<br>मेरा तड़प कर चौंक जाना<br>उबलकर फट पड़ना<br>या दर्द से छटपटाना<br>आदमी हूं और जिंदा हूं,<br>यह सारे संसार को बताना!<br><br>
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