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उज्र उज़्र आने में भी है ओर और बुलाते भी नहीं<br>बाइस-ए- तर्क-मुहब्बत बाइसे तर्के मुलाक़ात बताते भी नहीं<br><br>
मुंतज़िर हैं दमे रुख़सत के ये मर जाए तो जाएँ<br> फिर ये एहसान के हम छोड़ के जाते भी नहीं<br><br> सर उठाओ तो सही, आँख मिलाओ तो सही <br>नश्शाए मैं भी नहीं, नींद के माते भी नहीं<br><br> क्या कहा फिर तो कहो; हम नहीं सुनते तेरी <br>नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं<br><br> ख़ूब पर्दा परदा है कि के चिलमन से लगे बैठे हैं<br>
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं<br><br>
मुझसे लाग़िर तेरी आँखों में खटकते तो रहे <br>तुझसे नाज़ुक मेरी आँखों में समाते भी नहीं <br><br> देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ <br>कौन बैठा है इसे लोग उठाते भी नहीं<br><br> हो चुका क़ता तर्के तअल्लुक़ तो जफ़ाएं क्यों जफ़ाएँ क्यूँ हों<br>
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं<br><br>
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यों क्यूँ हो<br>जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं<br><br>