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{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
|संग्रह=
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[[Category:तुर्की भाषा]]
<poem>
मैं आती हूँ और खड़ी होती हूँ हर दरवाजे दरवाज़े पर मगर कोई नहीं सुन पाता मेरे क़दमों की खामोश आवाज ख़ामोश आवाज़
दस्तक देती हूँ मगर फिर भी रहती हूँ अनदेखी
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
सिर्फ सिर्फ़ सात साल की हूँ, भले ही मृत्यु हो गई थी मेरी
बहुत पहले हिरोशिमा में,
अब भी हूँ सात साल की ही, जितनी कि तब थी
झुलस गए थे मेरे बाल आग की लपलपाती लपटों में
धुंधला धुँधला गईं मेरी आँखें, अंधी अन्धी हो गईं वे मौत आई और राख में बदल गई मेरी हड्डियां हड्डियाँ
और फिर उसे बिखेर दिया था हवा ने
कोई फल नहीं चाहिए मुझे, चावल भी नहीं
मिठाई नहीं, रोटी भी नहीं
अपने लिए कुछ नहीं मांगती माँगती
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
बस इतना चाहती हूँ कि अमन के लिए
तुम लड़ो आज, आज लड़ो तुम
ताकि बड़े हो सकें, हंसहँस-खेल सकें
बच्चे इस दुनिया के.
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>
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