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दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।<br>
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।<br><br>
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।<br />लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।<br />सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।<br />कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।<br />दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।<br />सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।<br />भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।<br />होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।<br />दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br /> काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br />तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br />जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br />बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।<br />बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।<br />पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।<br />कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।<br />राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।<br />दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।<br /> एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।23।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br />बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं।।<br />प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।<br />फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।<br />को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।<br />जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।<br />सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।<br />अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।<br />को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।<br />दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।<br /> गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।<br /> &#8211;*&#8211;*&#8211;<br /> कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।<br />सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।।<br />सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।<br />सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।<br />सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।<br />भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।<br />कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।<br />जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।<br />छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।<br /> मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।<br /> दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।<br /> तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।<br />सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br /> कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br /><br>
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br />
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br />
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