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[[Category:ग़ज़ल]]
अब अक्सर चुप-चुप -से रहे हैं यूं यूँ ही कभी लब खोले हैं<br>
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं<br>
दिन में हम को देखने वालों वालो अपने -अपने हैं औक़ाब<br>
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं<br>
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं<br>
बाग़ में वो ख्वाबख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर<br>ड़ाली ड़ाली डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब ड़ोले डोले हैं<br>
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें<br>
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गां मिज़गाँ जब फ़ितने पर तोले हैं<br>
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम<br>
खल्वत ख़ल्वत में वो नर्म उंगलियां उँगलियां बंद-ए-क़बा जब खोले हैं<br>
ग़म का फ़साना सुनने वालों आखिर-ए-शब आराम करो<br>