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ज़हे-आबो-गिल<ref>जल-धरती को धन्य</ref> की ये कीमिया<ref>रसायन</ref>, है चमन की मोजिज़ा-ए-नुमू<ref>उत्थान का चमत्कार</ref>
न ख़िज़ाँ है कुछ न बहार कुछ, वही ख़ारो-ख़स, वही रंगो-बू।
कभी पाये-पाये हुये तुझे, कभी खोये-खोये हुये तुझे
कभी बेनयाज़े-तलाश है, कभी इश्क़ मायले-जुस्तजू।
 
न ये भेद हुस्न का खुल सका, न भरम ये इश्क़ का मिट सका
किसी रूप में ये है तू कि मैं, किसी भेस में ये हूँ मैं कि तू।
 
ये कहाँ से बज़्मे-ख़याल में उमड़ आयीं चेहरों की नद्दियाँ
कोई महचकाँ, कोई ख़ुरफ़ेशाँ, कोई ज़ोहरावश, कोई शोलारू।
 
गहे, बाग़े-हुस्न अदन-अदन, गहे, बाग़े-हुस्न खुतन-ख़ुतन
तबो-ताब रू-ए-नुमू-नुमू, ख़मो-पेच ज़ुल्फ़े-सियाह मू।
 
वो अदा-ए-उज्रे-सितम न थी, वो था कोई जादू-ए-सामरी
मुझे आज तक नहीं भूलती, वो निगाहे-नरगिसे-हीलाजू।
 
मेरी शाएरी में खिलाये गुल, सरे-नोके-ख़ार चमन-चमन
जो किये ये दावे हरीफ़ ने, रगे-फ़िक्र देने लगी लहू।
 
तुझे अहले-दिल की ख़बर नहीं कि जहाँ में गंज लुटा गये
ये गदागराने-दयारे-ग़म, ये कलन्दराने - तही - कदू।
 
अब उसी का तकिया ज़माने में, ये सुना है मरजा-ए-खल्क<ref>लोगों की तवज़्ज़ुह की जगह</ref> है
जो ’फ़िराक़’ तेरे लिये फिरा, कभी दर-ब-दर, कभी कू-ब-कू।
 
 
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