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लगे बालक-सदृश नृप वृद्ध रोने,
विगत सर्वस्व सा समझा उन्होंने!
 
कहा इस ओर अग्रज से अनुज ने,
पकड़ उनके चरण उस दीर्घभुज ने--
"वही हो जो तुम्हें हो ईष्ट मन में;
बने नूतन अयोध्या नाथ वन में!
भले ही दैव का बल दैव जाने,
पुरुष जो है न क्यों पुरुषार्थ माने?
हुआ; कुछ भी नहीं मैं जानता हूँ,
तुम्हें जो मान्य है सो मानता हूँ।
बिदा की बात किससे और किसकी?
अपेक्षा कुछ नहीं है नाथ! इसकी।
मुझे यदि मारना है, मार डालो,
निकालो तो न जीते जी निकालो।
प्रभो! रक्खो सदा निज दास मुझको,
कि निष्कासन न हो गृह-वास मुझको।
अयोध्या है कि यह उसका चिता-वन?
करुँगा क्या यहाँ मैं प्रेत-साधन?"
"अरे, यह क्या"--कहा प्रभु ने कि "यह क्या?
समझते हो बिदा को तुम विरह क्या?
तुम्हें क्या योग्य है उद्वेग ऐसा?
सुनो, जो चित्त में है, दूर कैसा?
पिता हैं और हैं माता यहाँ पर,
भरत-शत्रुघ्न-से भ्राता यहाँ पर।
अनुज! रहना उचित तुमको यहीं है,
यहाँ जो है त्रिदिव में भी नहीं है।
मुझे वन में न कुछ आयास होगा,
सतत मुनि-वृन्द का सहवास होगा।
पिता की ओर देखो, धर्म पालो,
अरे, मूर्च्छित हुए फिर वे, सँभालो!"
 
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