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"ईश्वरी सत्ता पर शोध पत्र/ प्रदीप मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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<poem>'''नई शताब्दी'''
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<poem>'''ईश्वरी सत्ता पर शोध पत्र
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एक बार फिर
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पैदा हुआ हिन्दू जाति में
किसी आकाशीय पिंड के हृदय में
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हिन्दुओं में भी ब्राह्मण
सृजन की ऊष्मा इतनी तीव्रता से उफने कि
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ब्राह्मण था
फटकर बिखर जाय वह पूरे अंतरिक्ष में
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इसलिए मेरी आस्था में सबसे पहले
जिस तरह से किसान बिखेरता खेतों में बीज
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ईश्वर को स्थापित किया गया
उगें छोटे-बड़े ग्रह-उपग्रह
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निर्मित हो नया-नया ब्रह्मांड
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इस बार
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सर्वशक्तिमान है ईश्वर
उपग्रहों के चक्कर काटें ग्रह
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ईश्वर की ईच्छा के विरूध
ग्रहों का सूर्य
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कुछ भी संभव नहीं है
हिमालय पिघलकर समुन्द्र बन जाय
+
ईश्वर ने ही बनाया है
समुन्द्र हराभरा पहाड़ और
+
नदियाँ-पेड़-पहाड़-धरती-खेत-जीव-जन्तु
दक्षिणी ध्रुव रेगिस्तान में बदल जाय
+
इन ईश्वरी मुहावरों मैं                                                                                                                           
 +
दिमाग तक डुबोकर रखा गया मुझे
  
पेड़-पौधे मनुष्यों की तरह चलें फिरें
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विद्यालय जाने के लिए
चिड़ियाँ समुन्द्र में तैरें
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घर के बाहर
मछलियाँ ले उड़ें मछुए की जाल
+
जब रखा पहली बार कदम
आकाश में
+
सबसे पहले मंदिर ले जाया गया
मनुष्यों का स्मृतिलोप हो जाय
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मंदिर में ईश्वर के क्लोन नें
इतिहास डूब जाय प्रलय की बाढ़ में
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चढ़ावे के अनुपात में आशीर्वाद दिया
 +
इसी आशीर्वाद से
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मैं सीख पाया ककहरा
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अतः ककहरा सीखते ही
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धर्मग्रन्थों को पढ़ना मेरी नैतिक विवशता थी और
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उनको कण्ठस्थ करना अनुवांशिक परम्परा
 +
धर्म के इसी घटाटोप में हर रोज
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नये-नये ईश्वरों ने मेरे दिमाग और दिल में
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जगह बनाना शुरू कर दिया
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इस तरह से किशोरावस्था तक
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मेरी चेतना में
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तैंतिस करोड़ देवी-देवताओं का वास हो गया
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इतनी विशाल ईश्वरी सत्ता की चका चौंध में हतप्रभ मैं
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आस्था के बिल्लौरी काँच पर हाथ घुमाते-घुमाते
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निकम्मा होता जा रहा था
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ईश्वर की कठपुतली होने का आभास
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मन में इस तरह से घर कर गया था कि
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मेरे शरीर की सारी कोशिकाओं के जीवद्रव्य
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धीरे-धीरे ईश्वर के अधीन हो रहे थे
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गीता से लेकर हनुमान चालिसा तक
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संकट मोचक थे मेरे पास
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तंत्र और सिद्धियों के तमाम चमत्कार
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मेरी आँखों के पलकों पर चिपके हुए थे
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सिर पर ईश्वर के क्लोनों के वरदहस्त थे
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मंदिरों की कतारें बिछीं हुयीं थीं गली-गली
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फिर भी ब्रह्मांड के हाशिए पर दुबका मैं
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अपने संशयो में सबसे ज्यादा असुरक्षित था
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बढ़ रही थी मेरी उम्र
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घट रही थी सोचने-समझने की क्षमता
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एक नागरिक की हैसियत से
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जब दाखिल हुआ इस समाज में
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देखा लोग भूखों मर रहे थे
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ईश्वर टनों घी से स्नान कर रहे थे
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लाखों लोगों की कत्ल हो रही थी
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ईश्वर अपने अंकवारी पकड़कर बैठे हुए थे जन्मभूमि
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हजारों द्रौपदियाँ, लाखों सुग्रीव और विभीषन गुहार लगा रहा थे
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ईश्वर चैन की वंशी बजा रहे थे
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छप्पन भोग लगा रहे थे
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मगन थे देवदासियों के नृत्य में
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मैं इन्तजार कर रहा था कि
 +
अभी आसमान से उतरेंगे मुस्कराते हुए
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और अपनी हथेली में समेट ले जाऐंगे दुःखों के पहाड़
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कभी भी किसी वक्त प्रकट हो जाएगा सुदर्शन चक्र और
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सारे अत्याचारियों के सिर धड़ से अलग कर देगा
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करोड़ों-करोड़ बाण सनसनाते हुए आऐंगे और
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नष्ट कर जाऐंगे सारे विध्वंसक हथियार
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इन्तजार करते-करते मैं थक गया हूँ
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अब बहुत कम दिन बचे हैं मेरी उम्र के
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इस दुनिया से बाहर होने से पूर्व
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ईश्वरी पहेली सुलझाने की गरज से
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एक बार फिर पलट रहा हूँ
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सारे घर्मग्रन्थों और इतिहास के पन्ने और
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अपने गुणसुत्रों की अनुवांशिक प्रवृत्तियों पर
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शोध कर रहा हूँ
 +
इतिहास की दराज से निकाल रहा हूँ
 +
लम्बे-लम्बे जुमले
 +
अनन्त तक फैली संस्कृतियों और
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पाताललोक तक जड़ फैलायी परम्पराएं
 +
 
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समय की सतह पर सरकते हुए
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मैं जिस मुकाम पर पहुँचा हूँ
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यह एक गुफा है
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जिसमे अंधकार ही अंधकार है और
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इसकी दीवारों पर
 +
ब्रेल लिपि में लिखा हुआ है इतिहास
 +
 
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ब्रेल लिपि में लिखे हुए
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इस इतिहास को पढ़ने की क्षमता हासिल किया और
 +
मर गयीं उंगलियों की पोरों की कोशिकाएं
 +
आखिरी कोशिका के मरने से ठीक एक क्षण पहले तक
 +
मैंने पढ़ा जब जंगल और गुफाओं से पहली बार निकले मनुष्य
 +
 
 +
बहुत सारे मनुष्य
 +
लग गए इस दुनिया को सजाने-संवारने में
 +
कुछ लोग जो नहीं कर सकते थे यह काम
 +
वे ईश्वर की रचना में लग गए
 +
 
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ईश्वर की रचना में ही
 +
बने चार वर्ण
 +
 
 +
सबसे पहला वर्ण ब्राह्मणों का
 +
ब्राह्मण ईश्वर के सबसे करीबी
 +
 
 +
ईश्वरी संरचना के सारे सूत्र इनके पास
 +
ईश्वरीय ज्ञान के गुरू
 +
यही इनकी रोजी-रोटी का जुगाड़
 +
अतः ईश्वर की सबसे पहली अवधारणा
 +
ब्राह्मणों ने दिया
 +
 
 +
क्षत्रिय धरती पर ईश्वर के पूरक
 +
राजा-महाराजा, अन्नदाता
 +
इन्होंने बनवाए बड़े-बड़े मंदिर
 +
किए भव्य धार्मिक अनुष्ठान
 +
जितनी बढ़ी महिमा ईश्वर की
 +
उतना ही फले-फूले क्षत्रिय
 +
अतः ईश्वरीय सत्ता के संस्थापक
 +
 
 +
तीसरा वर्ण वैश्यों का
 +
वैश्य ठहरे पूँजीपति-व्यापारी
 +
इन्होंने सबसे ज्यादा ईश्वर का ही व्यापार किया
 +
अतः ईश्वरीय सत्ता समृद्ध और व्यापक हुई
 +
 
 +
अंतिम वर्ण शुद्रों का
 +
जो जनसंख्या में बाकी वर्णो के योग से कई गुना ज्यादे
 +
शुरू से लगे हुए थे इस दुनिया को सजाने-संवारने में
 +
इन्होंने ही बनाया दुनिया को इतना ºÉ¨¨ÉÉ位úþ और सुन्दर
 +
ईश्वरीय सत्ता में
 +
ये ही रहे सबसे ज्यादा दलित-दमित
 +
 
 +
इस शोधपत्र के निष्कर्ष पर
 +
मेरी लम्बी-चौड़ी अनुवांशिक समझ
 +
सिकुड़कर लिजलिजी हो गयी है
 +
 
 +
इतिहास के दलदल में नाक तक धंस गया हूँ और
 +
हवा में लहराते हुए मेरे बाल
 +
सूरज में उलझ गए हैं
 +
 
 +
अब मैं चाहता हूँ कि
 +
ईश्वर के भार से चपटा हुए शरीर को छोड़कर
 +
कबूतर बन जाऊँ
 +
मंदिर की मुंडेर पर बैठकर
 +
गुटरगूं-गुटरगूं करूं । 
  
फिर नए सिरे से पहचाने जाएं
 
जंगल-पेड़-पहाड़-जीव-जंतु
 
निर्मित हो नई-नई भाषा
 
नए-नए शब्द आएँ जीवन में
 
नई शताब्दी में विकसित हो नई-नई जीवन शैली।
 
 
</poem>
 
</poem>

18:01, 13 दिसम्बर 2010 का अवतरण

ईश्वरी सत्ता पर शोध पत्र


पैदा हुआ हिन्दू जाति में
हिन्दुओं में भी ब्राह्मण
ब्राह्मण था
इसलिए मेरी आस्था में सबसे पहले
ईश्वर को स्थापित किया गया

सर्वशक्तिमान है ईश्वर
ईश्वर की ईच्छा के विरूध
कुछ भी संभव नहीं है
ईश्वर ने ही बनाया है
नदियाँ-पेड़-पहाड़-धरती-खेत-जीव-जन्तु
इन ईश्वरी मुहावरों मैं
दिमाग तक डुबोकर रखा गया मुझे

विद्यालय जाने के लिए
घर के बाहर
जब रखा पहली बार कदम
सबसे पहले मंदिर ले जाया गया
मंदिर में ईश्वर के क्लोन नें
चढ़ावे के अनुपात में आशीर्वाद दिया
इसी आशीर्वाद से
मैं सीख पाया ककहरा
अतः ककहरा सीखते ही
धर्मग्रन्थों को पढ़ना मेरी नैतिक विवशता थी और
उनको कण्ठस्थ करना अनुवांशिक परम्परा
धर्म के इसी घटाटोप में हर रोज
नये-नये ईश्वरों ने मेरे दिमाग और दिल में
जगह बनाना शुरू कर दिया
इस तरह से किशोरावस्था तक
मेरी चेतना में
तैंतिस करोड़ देवी-देवताओं का वास हो गया

इतनी विशाल ईश्वरी सत्ता की चका चौंध में हतप्रभ मैं
आस्था के बिल्लौरी काँच पर हाथ घुमाते-घुमाते
निकम्मा होता जा रहा था

ईश्वर की कठपुतली होने का आभास
मन में इस तरह से घर कर गया था कि
मेरे शरीर की सारी कोशिकाओं के जीवद्रव्य
धीरे-धीरे ईश्वर के अधीन हो रहे थे

गीता से लेकर हनुमान चालिसा तक
संकट मोचक थे मेरे पास
तंत्र और सिद्धियों के तमाम चमत्कार
मेरी आँखों के पलकों पर चिपके हुए थे
सिर पर ईश्वर के क्लोनों के वरदहस्त थे
मंदिरों की कतारें बिछीं हुयीं थीं गली-गली
फिर भी ब्रह्मांड के हाशिए पर दुबका मैं
अपने संशयो में सबसे ज्यादा असुरक्षित था

बढ़ रही थी मेरी उम्र
घट रही थी सोचने-समझने की क्षमता

एक नागरिक की हैसियत से
जब दाखिल हुआ इस समाज में
देखा लोग भूखों मर रहे थे
ईश्वर टनों घी से स्नान कर रहे थे
लाखों लोगों की कत्ल हो रही थी
ईश्वर अपने अंकवारी पकड़कर बैठे हुए थे जन्मभूमि
हजारों द्रौपदियाँ, लाखों सुग्रीव और विभीषन गुहार लगा रहा थे
ईश्वर चैन की वंशी बजा रहे थे
छप्पन भोग लगा रहे थे
मगन थे देवदासियों के नृत्य में
मैं इन्तजार कर रहा था कि
अभी आसमान से उतरेंगे मुस्कराते हुए
और अपनी हथेली में समेट ले जाऐंगे दुःखों के पहाड़

कभी भी किसी वक्त प्रकट हो जाएगा सुदर्शन चक्र और
सारे अत्याचारियों के सिर धड़ से अलग कर देगा
करोड़ों-करोड़ बाण सनसनाते हुए आऐंगे और
नष्ट कर जाऐंगे सारे विध्वंसक हथियार

इन्तजार करते-करते मैं थक गया हूँ
अब बहुत कम दिन बचे हैं मेरी उम्र के
इस दुनिया से बाहर होने से पूर्व
ईश्वरी पहेली सुलझाने की गरज से
एक बार फिर पलट रहा हूँ
सारे घर्मग्रन्थों और इतिहास के पन्ने और
अपने गुणसुत्रों की अनुवांशिक प्रवृत्तियों पर
शोध कर रहा हूँ
इतिहास की दराज से निकाल रहा हूँ
लम्बे-लम्बे जुमले
अनन्त तक फैली संस्कृतियों और
पाताललोक तक जड़ फैलायी परम्पराएं

समय की सतह पर सरकते हुए
मैं जिस मुकाम पर पहुँचा हूँ
यह एक गुफा है
जिसमे अंधकार ही अंधकार है और
इसकी दीवारों पर
ब्रेल लिपि में लिखा हुआ है इतिहास

ब्रेल लिपि में लिखे हुए
इस इतिहास को पढ़ने की क्षमता हासिल किया और
मर गयीं उंगलियों की पोरों की कोशिकाएं
आखिरी कोशिका के मरने से ठीक एक क्षण पहले तक
मैंने पढ़ा जब जंगल और गुफाओं से पहली बार निकले मनुष्य

बहुत सारे मनुष्य
लग गए इस दुनिया को सजाने-संवारने में
कुछ लोग जो नहीं कर सकते थे यह काम
वे ईश्वर की रचना में लग गए

ईश्वर की रचना में ही
बने चार वर्ण

सबसे पहला वर्ण ब्राह्मणों का
ब्राह्मण ईश्वर के सबसे करीबी

ईश्वरी संरचना के सारे सूत्र इनके पास
ईश्वरीय ज्ञान के गुरू
यही इनकी रोजी-रोटी का जुगाड़
अतः ईश्वर की सबसे पहली अवधारणा
ब्राह्मणों ने दिया

क्षत्रिय धरती पर ईश्वर के पूरक
राजा-महाराजा, अन्नदाता
इन्होंने बनवाए बड़े-बड़े मंदिर
किए भव्य धार्मिक अनुष्ठान
जितनी बढ़ी महिमा ईश्वर की
उतना ही फले-फूले क्षत्रिय
अतः ईश्वरीय सत्ता के संस्थापक

तीसरा वर्ण वैश्यों का
वैश्य ठहरे पूँजीपति-व्यापारी
इन्होंने सबसे ज्यादा ईश्वर का ही व्यापार किया
अतः ईश्वरीय सत्ता समृद्ध और व्यापक हुई

अंतिम वर्ण शुद्रों का
जो जनसंख्या में बाकी वर्णो के योग से कई गुना ज्यादे
शुरू से लगे हुए थे इस दुनिया को सजाने-संवारने में
इन्होंने ही बनाया दुनिया को इतना ºÉ¨¨ÉÉ位úþ और सुन्दर
ईश्वरीय सत्ता में
ये ही रहे सबसे ज्यादा दलित-दमित

इस शोधपत्र के निष्कर्ष पर
मेरी लम्बी-चौड़ी अनुवांशिक समझ
सिकुड़कर लिजलिजी हो गयी है

इतिहास के दलदल में नाक तक धंस गया हूँ और
हवा में लहराते हुए मेरे बाल
सूरज में उलझ गए हैं

अब मैं चाहता हूँ कि
ईश्वर के भार से चपटा हुए शरीर को छोड़कर
कबूतर बन जाऊँ
मंदिर की मुंडेर पर बैठकर
गुटरगूं-गुटरगूं करूं ।