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"शब्द हो गए बागी / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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23:29, 9 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

होंठ खुलते हैं
जुबान चलती है
आग भीतरी लौ लिए निकलती है
शब्द हो गए बागी
निज़ाम डरता है