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"विमाता के प्रति / अनिल जनविजय" के अवतरणों में अंतर

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जैसे मधुपूरित अमलतास
 
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यह धूप बताशे के रंग की
 
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यह दमक आतशी दर्पण की
 
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कई दिनों में आज खिल आई है
 
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यह आभा दिनकर के तन की
 
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फिर पक्षी-कलरव गूँज उठा
 
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कुसुमित हो उठा जीवन सारा
 
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यह धूप कपूरी, क्या कहना
 
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अक्षत-सा छींट रही मन में
 
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फिर संदली धूल उड़े हलकी
 
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फिर जल में कंचन की झलकी
 
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फिर अपनी बाँकी चितवन से
 
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मुझे लुभाए यह लड़की
 
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पहले की तरह
 
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पहुँच अचानक उस ने मेरे घर पर
 
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लाड़ भरे स्वर में कहा ठहर कर
 
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''अरे. . . सब-कुछ पहले जैसा है
 
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सब वैसा का वैसा है. . .
 
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फिर शांत नज़र से उस ने मुझे घूरा
 
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लेकिन कहीं कुछ रह गया अधूरा
 
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उदास नज़र से मैं ने उसे ताका
 
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फिर उस की आँखों में झाँका
 
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मुस्काई वह, फिर चहकी चिड़िया-सी
 
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हँसी ज़ोर से किसी बहकी गुड़िया-सी
 
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चूमा उस ने मुझे, फिर सिर को दिया खम
 
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बरसों के बाद इस तरह मिले हम
 
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प्रतीक्षा
 
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शेष और हैं पंद्रह दिन
 
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समय यह सरके कच्छप-गति से
 
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नंदिनी तेरे बिन
 
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जीवन खाली है, मन खाली
 
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स्मृति की जकड़न
 
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नीली पड़ गई देह विरह से
 
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घेर रही ठिठुरन
 
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मर जाएगा कवि यह तेरा
 
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बिखर जाएगा फूल
 
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अरी, नंदिनी, जब आएगी तू
 
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बस, शेष बचेगी धूल
 
बस, शेष बचेगी धूल
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बदलाव
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जब तक मैं कहता रहा
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जीवन की कथा उदास
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उबासियाँ आप लेते रहे
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बैठे रहे मेरे पास
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पर ज्यों ही शुरू किया मैं ने
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सत्ता का झूठा यश-गान
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सिर-माथे पर मुझे बैठाकर
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 +
किया आप ने मेरा मान

19:51, 23 जून 2007 का अवतरण

रचनाकारः अनिल जनविजय

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले

मैं सूखे सरोवर की हाँफ़ती मछली
इक लाल गुलाब की सूखी हुई कली
अपनी स्नेहमयी गंध मुझमें भर दे

माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले

लहूलुहान चिड़िया-सी यंत्रणा में हूँ
सोचती हूँ तेरी ख़ैरगाह में रहूँ
माँ तू मुझे बिम्ब अपना दे

माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले


धूमिल की कुछ कविताएँ

1 दिनचर्या

सुबह जब अंधकार कहीं नहीं होगा, हम बुझी हुई बत्तियों को इकट्ठा करेंगे और आपस में बांट लेंगे.

दुपहर जब कहीं बर्फ नहीं होगी और न झड़ती हुई पत्तियाँ आकाश नीला और स्वच्छ होगा नगर क्रेन के पट्टे में झूलता हुआ हम मोड़ पर मिलेंगे और एक दूसरे से ईर्ष्या करेंगे.

रात जब युद्ध एक गीत पंक्ति की तरह प्रिय होगा हम वायलिन को रोते हुए सुनेंगे अपने टूटे संबंधों पर सोचेंगे दुःखी होंगे.

2 नगर-कथा

सभी दुःखी हैं सबकी वीर्य-वाहिनी नलियाँ सायकिलों से रगड़-रगड़ कर पिंची हुई हैं दौड़ रहे हैं सब सम जड़त्व की विषम प्रतिक्रिया : सबकी आँखें सजल मुट्ठियाँ भिंची हुई हैं.

व्यक्तित्वों की पृष्ठ-भूमि में तुमुल नगर-संघर्ष मचा है आदिम पर्यायों का परिचर विवश आदमी जहाँ बचा है.

बौने पद-चिह्नों से अंकित उखड़े हुए मील के पत्थर मोड़-मोड़ पर दीख रहे हैं राहों के उदास ब्रह्मा-मुख ‘नेति-नेति' कह चीख रहे हैं.

.


.


3 गृहस्थी : चार आयाम

मेरे सामने तुम सूर्य - नमस्कार की मुद्रा में खड़ी हो और मैं लज्जित-सा तुम्हें चुप-चाप देख रहा हूँ (औरत : आँचल है, जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है, किन्तु मुझे लगता है- इन दोनों से बढ़कर औरत एक देह है)

मेरी भुजाओं में कसी हुई तुम मृत्यु कामना कर रही हो और मैं हूँ- कि इस रात के अंधेरे में देखना चाहता हूँ - धूप का एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर रात की प्रतीक्षा में हमने सारा दिन गुजार दिया है और अब जब कि रात आ चुकी है हम इस गहरे सन्नाटे में बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर किसी स्वस्थ क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं

न मैंने न तुमने ये सभी बच्चे हमारी मुलाकातों ने जने हैं हम दोनों तो केवल इन अबोध जन्मों के माध्यम बने हैं


धूमिल की अंतिम कविता

"शब्द किस तरह कविता बनते हैं इसे देखो अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो क्या तुमने सुना की यह लोहे की आवाज है या मिट्टी में गिरे हुए खून का रंग"

लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है.

    • -**

(साभार - कविता संग्रह - कल सुनना मुझे, युगबोध प्रकाशन, वाराणसी, 1977)


नीलेश रघुवंशी की पाँच कविताएँ

ज़रा ठहरो

इस मकान की पहली बरसात

याद आ गई घर की ।


छोटे भाई-बहनों को न निकलने की

हिदायत देती हुई


जल्दी-जल्दी बाहर से कपड़े

समेट रही होगी माँ ।


पिता चढ़ आए होंगे छत पर

भाई निकल गया होगा

साइकिल पर बरसाती लेने ।


पानी ज़रा ठहरो छत को ठीक होने दो

ले आने दो भाई को बरसाती ।


दुर्घटना

बच्चा बहुत ख़ुश होता है

किलकारियाँ मारता है

चलती ट्रेन को देखकर

हो न जाए उसके सामने

रेल-एक्सीडेंट ।


माँ

माँ बेसाख़्ता आ जाती है तेरी याद

दिखती है जब कोई औरत ।


घबराई हुई-सी प्लेटफॉ़म पर

हाथों में डलिया लिए


आँचल से ढँके अपना सर

माँ मुझे तेरी याद आ जाती है ।


मेरी माँ की तरह

ओ स्त्री


उम्र के इस पड़ाव पर भी घबराहट है

क्यों, आख़िर क्यों ?


क्यका पक्षियों का कलरव

झूठमूठ ही बहलाता है हमें ?


अभाव

इस बार फिर मेरे बैग को

मत टटोलना माँ

तंगहाली के सपनों के सिवा

कुछ नहीं है उसमें।


जानती हूँ ख़ूब फबेगी तुझ पर वह साड़ी

पर साड़ी सपनों से

ख़रीदी नहीं जा सकती ।


काश ख़रीद पाती मैं तुम्हारे लिए

सिंदूर और साड़ी

पिता के लिए नया कुर्ता

भाई के लिए मफ़लर

जबान होती बहन के लेए कुछ सपने ।


ख़ाली जेबों में हाथ डाले

हर रोज़ जाती हूँ बाजा़र

और घंटों करती रहती हूँ वंडो-शॉपिंग ।



सत्रह साल की लड़की

सत्रह साल की लड़की के स्वपन में

आसमान नहीं है

पेड़, पहाड़ और तपती दोपहर नहीं

सुबह की एक कआँच भी नहीं

घर में फुदकती चिड़िया-सी लड़की

सपना देखती है बसस

अठारह की होने और घर बसाने का ।


लड़की ने तलाशा सुख

हमेशा औरों में

खुद में कभी कुछ तलाशा ही नहीं

सिखाया गया उसे हर वक़्त यही

लड़की का सुख चारदीवारी के भीतर है

सोचती है लड़की

सिर्फ़ एक घर के बारे में ।


लड़की जो घर की उजास है

हो जाएगी एक दिन ख़ामोश नदी

ख़ामोशी से करेगी सारे कामकाज

चाल में उसके नहीं होगी

नृत्य की थिरकन

पाँव भारी होंगे पर थिरकेंगे कभी नहीं

युगों-युगों तक रखेगी पाँव धीरे-धीरे

धरती पर चलते

धरती के बारे में कभी नहीं

सोचेगी लड़की ।


कभी नहीं चाहा लोगों ने

लड़की भी बैठे पेड़ पर ख़ुद लड़की ने नहीं चाहा कभी

चिडि़यों की तरह उड़ जाना

नहीं चाहा छू लेना आकाश ।


कभी नहीं देख पाएगी लड़की

आसमान से निकलती नदी

नदी से निकलते पहाड़

पहाड़ों के ऊपर उड़ती चिड़िया

नहीं आ पाएगी कभी

लड़की की आँखों में ।


ओ मेरी बहन की तरह

सत्रह साल की लड़की

दौड़ते हुए क्यों नहीं निकलत जाती

मैदानों में

क्यों नहीं छेड़ती कोई तान

तुम्हारे सपनों में क्यों नहीं है

कोई उछाल !



किताब

प्रकाशको, तुम करो किताबों का दाम

किताबें नहीं हैं महँगी शराब

पालो अपने अंदर इच्छा

दौड़ पड़ें बच्चे किताबों के पीछे

दौड़ते हैं जैसे तितनी पकड़ने को ।


मैं रखना चाहती हूँ

किताब को उतने ही पास

जितने नज़दीक रहते हैं मेरे सपने

किताबो, तुम साथ रहो

हमारी अधूरी इच्छाओं के

कहीं सिक्कों के जाल में

गुम न हो जाये इच्छाओं का अकेलापन ।


मैं उपहार में देना चाहती हूँ किताबें उन्हें

जो होते-होते मेरे छिप गए

लुका-छिपी के खेल में-

उन्हें भी एक किताब

जो हो नहीं सके मेरे कभी

बाईस बरस की इस ज़िंदगी में

लिख नहीं सकी एक किताब पर भी

अपना नाम ।


ओ महँगी किताबो

तुम थोड़ी सस्ती हो जाओ

मैं उतरना चाहती हूँ

तुम्हारी इस रहस्यमयी दुनिया में ।


तब भी

तुम

गए भी तो आँधी की तरह

मैं

बची रही लौ की तरह तब भी ।



चबूतरा

चबूतरे पर बैठी औरतें करती हैं बातें

सिर-पैर नहीं कोई

अनंत तक फैली

कभी न ख़्तम होने वाली

भर देती हैं कभी गहरी उदासी

और खीकझ से ।


निपटाकर कामकाज

बैठी हैं घेरकर चबूतरा

दमक रहे हैं सबके चेहरे

चेहरे पर किसी के कुछ ज़्यादा ही नमक

हाथ नहीं किसी के ख़ाली

भरे हैं फुर्सत से भरे कामों से ।


कहती है उनमें से एक

जन्मा है फ़लाँ ने बच्चा

बढ़ जाएगा क़द उसका एक इंच

मिलती हैं सब उसकी हीँ में हीँ

होती हैं खुश-

निकलती है फिर नई बात ।


क्या जन्मने से बच्चा बढ़ता है क़द ?

क्यों नहीं बढ़ा फिर माँ का क़द ?

बताती है बहन

बढ़ता है क़द बेटा जन्मने से

जन्मी हैं माँ ने आठ बेटियाँ ।


बुझाकर बत्ती लेटते हैं हम बिस्तरे पर

गहरी उदासी और अनमने भाव से

सोचते हुए माँ के बारे में

खींचे उसके जीवन के अनन्य चित्र

भरे हम सबने पहली बार एक से रंग ।


हमारे सपनों को सँजोती

चिंता करती हमारे भविष्य की

रहती है कैसी उतास

बैठती नहीं कभी चबूतरे पर

फ़ुर्सत से भरे कामों को निपटाते

सोचती है वह हमारे घरों के बारे में ।


खिड़की

देर रात

सो चुका है जब शहर

अँधेरे के बीच टिमटिमाता है तारा

खिड़की जो एक खुली हुई है

है साथ तारे के ।


कमरे और खिड़की के बीच का फ़ासला

कमरे में है उदासी बावजूद रोशनी के ।


भीतर खिड़की के क्या ?

शायद

डूबा हुआ हो कोई स्वप्न में

पढ़ी जा रही हा कोई किताब

सोच रहा है कोई सुबह के बारे में ।

यह भी हो सकता है

प्रतीक्षा में है कोई लड़की

जाग रही है माँ निगरानी में ।


भूल नहीं पाती मैं अपना व्यतीत
तेरे कंठ से फूटता पवित्र संगीत
मुझको तू अपनी हरीतिमा दे

माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले


मैं मौन रहूँ

तुम गाओ

जैसे फूले अमलतास

तुम वैसे ही

खिल जाओ


जीवन के

अरुण दिवस सुनहरे

नहीं आज

तुम पर कोई पहरे

जैसे दहके अमलतास

तुम वैसे

जगमगाओ


कुहके जग-भर में

तू कल्याणी

मकरंद बने

तेरी युववाणी

जैसे मधुपूरित अमलतास

तुम सुरभि

बन छाओ


अनमने दिन दिन बीते रीते-रीते इन सूनी राहों पे

मिला न कोई राही बना न कोई साथी वन सूखे चाहों के

याद न कोई आता न मन को कोई भाता घेरे खाली हैं बाहों के

कलप रहा है तन जैसे भू-अगन दिन आए फिर कराहों के


अभ्रकी धूप


यह धूप बताशे के रंग की

यह दमक आतशी दर्पण की

कई दिनों में आज खिल आई है

यह आभा दिनकर के तन की


फिर चमक उठा गगन सारा

फिर गमक उठा है वन सारा

फिर पक्षी-कलरव गूँज उठा

कुसुमित हो उठा जीवन सारा


यह धूप कपूरी, क्या कहना

यह रंग कसूरी, क्या कहना

अक्षत-सा छींट रही मन में

उल्लास-माधुरी क्या कहना


फिर संदली धूल उड़े हलकी

फिर जल में कंचन की झलकी

फिर अपनी बाँकी चितवन से

मुझे लुभाए यह लड़की


पहले की तरह


पहुँच अचानक उस ने मेरे घर पर

लाड़ भरे स्वर में कहा ठहर कर

अरे. . . सब-कुछ पहले जैसा है

सब वैसा का वैसा है. . .

पहले की तरह. . .


फिर शांत नज़र से उस ने मुझे घूरा

लेकिन कहीं कुछ रह गया अधूरा


उदास नज़र से मैं ने उसे ताका

फिर उस की आँखों में झाँका


मुस्काई वह, फिर चहकी चिड़िया-सी

हँसी ज़ोर से किसी बहकी गुड़िया-सी


चूमा उस ने मुझे, फिर सिर को दिया खम

बरसों के बाद इस तरह मिले हम

पहले की तरह


प्रतीक्षा


अभी महीना गुज़रा है आधा

शेष और हैं पंद्रह दिन

समय यह सरके कच्छप-गति से

नंदिनी तेरे बिन


जीवन खाली है, मन खाली

स्मृति की जकड़न

नीली पड़ गई देह विरह से

घेर रही ठिठुरन


मर जाएगा कवि यह तेरा

बिखर जाएगा फूल

अरी, नंदिनी, जब आएगी तू

बस, शेष बचेगी धूल

बदलाव

जब तक मैं कहता रहा

जीवन की कथा उदास

उबासियाँ आप लेते रहे

बैठे रहे मेरे पास


पर ज्यों ही शुरू किया मैं ने

सत्ता का झूठा यश-गान

सिर-माथे पर मुझे बैठाकर

किया आप ने मेरा मान