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"मध्यवर्ग : चार कविताएँ / अशोक भाटिया" के अवतरणों में अंतर

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21:40, 11 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

1.
एक स्याह सुरंग से निकल–निकल कर
चमड़े की छाती ताने आते हैं वे
सुख बटोरने के लिए
सच्चाइयों के आर–पार
घने पर्दों को लटकाए
चले जातें हैं वे

इन पर्दों के बीच
इतिहास की गति से बचने की
अपनी कमज़ोरियाँ भुलाने
ज़िंदगी को लड़ाई की बजाय
स्थिर सुख में बदलने की साजिश के अगुआ
सुख को सभ्यता मानकर
एक मुर्दा संस्कृति के बीच
अपने सिरों पर गिद्धों की तरह बैठे हुए
चले जाते हैं वे
एक स्याह सुरंग से
दूसरी स्याह सुरंग तक

2
पैंतीस की उम्र में
मैं बड़ा सुखी हूँ
बाल कटी बीवी
टी०वी०, बच्चे, फ्रिज के बाद
अब अपना मकान है मेरे पास
पूँजीपतियों के शेयर हैं
कुछ रोमानी सपने
और कामुक कल्पनाएँ
सफल कर लिया है जीवन मैंने

3.
बाबूजी पैदा हुए थे
क्या कर गए ?
कॉलेज में पढ़े
नौकरी की
इधर का उधर किया
पेंशन ली
और मर गए ।

बाबूजी पैदा हुए थे
क्या कर गए !

4.
हम हैं असली इन्सान
मिट्टी में, गारे में, पुर्जों में
घिसटते रहना भी कोई ज़िंदगी है !
देखो, उनके पास
शानदार कोठी है, कार है...

आलीशान बंगलों में
बन्द होके रहना
किसी से सुनना न कहना भी
कोई जिंदगी है !
देखो, वे मेहनत करते हैं
मिट्टी में कितनी
खुली तरह जीते हैं.....

हम हैं असली इन्सान
दोनों से अलग
ज़िंदगी, गति, इतिहास से बचते हुए
इस ज़मी के मेहमान !