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"चन्द्रकुंवर बर्त्वाल / परिचय" के अवतरणों में अंतर

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शिक्षा और पालन-पोषण uttrakhand aur uttar pradeshप्रदेश में।  
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शिक्षा और पालन-पोषण उत्तराखण्ड और उत्तरप्रदेश में।  
 
शिक्षा - बी०ए,  
 
शिक्षा - बी०ए,  
हिंदी में agastmuni school rudraprayag me adyapak के रूप में कार्यरत rahe।
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हिंदी में अगस्त मुनि स्कूल रुद्रप्रयाग में अध्यापक के रूप में कार्यरत रहे।
 
कार्यक्रम में शिरकत।  
 
कार्यक्रम में शिरकत।  
कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित  
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कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
chandra kunwa parvtiya shetra ke aise kavi hai jinhe isswar ne
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चन्द्रकुँवर पर्वतीय क्षेत्र के ऐसे कवि हैं, जिन्हें ईश्वर ने मात्र 27 वर्ष का जीवन दिया। इसके बावजूद उन्होणे हिन्दी में करीब साढ़े आठ सौ कविताएँ लिखीं । यहाँ हम विस्तार से उनके कृतित्त्व का विवेचन कर रहे हैं।
maatra 27 warsh ka jivan diya . iske babjood unhone hindi
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--- जुनेद अहमद तत्कालीन नायब
kavita me lagbha 850 kavitaon ka yogdan kiya . ham vistar
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se unke krititya ki vivechana karenge.
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tqusn vgen rRdkyhu uk;c
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font krutidev 10
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14 सितम्बर की तिथि मात्र हिन्दी दिवस के रूप में याद किये जाने का दिवस नहीं है। यह दिवस हिन्दी कविता जगत की एक ऐसी विभूति के निर्वाण का दिवस भी है जिसने मात्र 27 वर्ष के अपने जीवन काल में हिन्दी को ऐसी समृद्वशाली रचनायें दी जो अनेक विद्वजनों के लिये आज भी शोध का विषय बनी हुयी हैं। 21 अगस्त 1919 में ई0 में तत्कालीन गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर एक बालक का जन्म हुआ। (इनके जन्म की तिथि के संबंध में यह विवाद है कि यह 21 अगस्त 1919 है अथवा 20 अगस्त 1919। डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह प्रमाणित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की जन्म तिथि 21 अगस्त 1919 है ) उनके नाम के सम्बन्ध में भी डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह अवधारित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का असली नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था। श्री चन्द्र कुंवर की मां का दिया हुआ नाम श्रीचन्द्र था तथा उनके पिता का दिया हुआ नाम कुँवर सिंह था और इनका प्रसिद्ध साहित्यिक नाम है श्रीचन्द्रकॅुवर। इस प्रकार माँ और पिता दोनो की भावनाओं की रक्षा हो सके इसलिये उन्होंने अपना साहित्यिक नाम चन्द्रकॅुवर अपनाया था। वे अपनी माता पिता की प्रथम और इकलौती संतान थे।
  
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उनके परम प्रिय मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा के अनुसार उनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई। तद्पश्चात पौड़ी गढ़वाल के मिशन कालेज (वर्तमान में मैसमोर इन्टर कालेज) से 1935 में उन्होंने हाई स्कूल किया और उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया जहां उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी रहते थे। वे दोनो वहाँ साथ ही रहने लगे थे जहाँ श्री बहुगुणा ने उन्हें अत्यधिक स्नेह और संबल प्रदान किया। बांज और बुरांस की जड़ों से रिसता हुआ पानी पीने की आदत डाल चुके श्री बर्त्वाल से मैदानी क्षेत्रों की आपाधापी सहन न हो सकी और वे बीमार रहने लगे और अंततः इतना बीमार हुए कि 1941 के दिसम्बर माह में आगे की पढ़ाई छोड़कर अपने गाँव वापस लौट आए । लखनऊ से लौटकर उन्हें पंवालिया जाना पडा जो उनके जन्म ग्राम मालकोटी से कुछ दूरी पर स्थित था और मालकोटी से अधिक समृद्ध और प्राकृतिक शोभा से युक्त था। यह चमोली जनपद में रूद्रप्रयाग और केदारनाथ के बीच केदारनाथ मार्ग पर भीरी के नजदीक बसा ग्राम है जिसे बर्त्वाल परिवार ने सिंचित और अधिक उत्पादकता रखने वाली भूमि पर हरियाली और खुशहाली की उम्मीदों के साथ लिया था।
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इस स्थान के संबंध में डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘हिलांस’ मासिक के सितम्बर 1980 अंक में प्रकाशित लेख में कहा है कि वह ग्राम पंवालिया केदारनाथ के पंडेा के अधिकारक्षेत्र में हुआ करता था। इन पंडों ने किसी लाला से एक हजार रूपये कर्ज लिया था जिसे चुकाने का दबाव उन पर था। जब लाला के कर्ज केा चुकाने में उन्हे सफलता नहीं मिली तो विपत्ति के समय में कर्ज को चुकाने के लिये इस गाँव पंवालिया को बेच कर कर्ज की अदायगी करने की सोची। इसी समय उस लाला ने बडी क्रूरता के साथ पंवालिया को मात्र हजार रूपये में बर्त्वाल परिवार को बेचने का प्रस्ताव किया। मालकोटी से अलग एक नया धरौंदा बनाने के अवसर का उपयोग करने की आशा से बर्त्वाल परिवार ने यह जमीन ले ली। यह मान्यता है कि बुरे दिनों में भूमि और भवन से वंचित होने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों ने इस भूमि पर बसने वालों को न फलने का अभिशाप दिया। उन्होंने जब पंवालिया को छोडा तो वहां की मिट्टी कई देवस्थानों को चढाई और बददुआयें दी। बददुआवों के असर ने बर्त्वाल परिवार को छिन्न भिन्न करना प्रारंभ कर दिया। जब से बर्त्वाल परिवार ने पंवालिया में डेरा डाला, तभी से कविवर बीमारी की चपेट में आ गये और उसका परिवार भी कालान्तर में प्रभावित हुआ।
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वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘चन्द्रकुवर
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बर्त्वाल की कवितायें भाग-एक’ में यह रहस्योद्घाटन किया हैं कि उन्होंने अपना लिखा संकोचवश पत्रिकाओं में भी नहीं भेजा। बस स्वातः सुखाय कवितायें लिखी और पास रख लीं बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज दीं। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने 350 कविताओं का संग्रह संपादित किय । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। उनकी दूरदृष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। ‘मैकाले के खिलौने’ नामक कविता का अंश देखियेः- मेड इन जापान , खिलौनों से सस्ते हैं लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे। उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:- मजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को, लीग सी नाज्.ारी जो छोडी नामर्द कहें क्या हम तुम को। श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे ।
f[kykSukas ls lLrs gSa
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उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की घनिष्ठता थी। ’उत्तराखण्ड भारती’ त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 पर यह अंकित है कि  निराला जी के साथ  1939 से 1942 तक उन्होंने अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था। उन्होंने 25 से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिससे कहानी ,एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः- हृदयों में जागेगा प्रेम और नयनों में चमक उठेगा सत्य, मिटेंगे झूठे सपने। लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पाँच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को मुखर कियाः-
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मकडी काली मौत है, रोग उसी के जाल,
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मक्खी से जिसमें फँसे ,चन्द्र कुँवर बर्त्वाल।
bVyh rw tk; tgUue dks]
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खडी हो रही हड्डियाँ, सूख रही है खाल।
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अपने दुखों के सम्बन्ध में कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-
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प्रिय यशपाल जी,  
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अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूँ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा....सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूँ और इधर उधर अस्त-व्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।
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और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद वे शायद आजाद भारत की हवा में कुछ साँसे लेने के लिए 14 सितम्बर तक जिन्दा रहे। 14 सितम्बर 1947 की रात हिमालय के लिये काल रात्रि साबित हुई जब हिमालय के अमर गायक चन्द्रकुवर बर्त्वाल ने सदा सदा के लिए इस लोक को छोड दिया और हमेशा के लिए सो गए। ऐसा था वह रविवार का दिन। वे चले गए और अपने पीछे अपनी अव्यवस्थित काव्य संपदा को यह कह कर छोड गये--
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मैं सभी के करूण-स्वर हूँ सुन चुका
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हाय मेरी वेदना को पर न कोई गा सका।
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02:58, 19 जनवरी 2011 का अवतरण

शिक्षा और पालन-पोषण उत्तराखण्ड और उत्तरप्रदेश में। शिक्षा - बी०ए, हिंदी में अगस्त मुनि स्कूल रुद्रप्रयाग में अध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। कार्यक्रम में शिरकत। कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित । चन्द्रकुँवर पर्वतीय क्षेत्र के ऐसे कवि हैं, जिन्हें ईश्वर ने मात्र 27 वर्ष का जीवन दिया। इसके बावजूद उन्होणे हिन्दी में करीब साढ़े आठ सौ कविताएँ लिखीं । यहाँ हम विस्तार से उनके कृतित्त्व का विवेचन कर रहे हैं। --- जुनेद अहमद तत्कालीन नायब

14 सितम्बर की तिथि मात्र हिन्दी दिवस के रूप में याद किये जाने का दिवस नहीं है। यह दिवस हिन्दी कविता जगत की एक ऐसी विभूति के निर्वाण का दिवस भी है जिसने मात्र 27 वर्ष के अपने जीवन काल में हिन्दी को ऐसी समृद्वशाली रचनायें दी जो अनेक विद्वजनों के लिये आज भी शोध का विषय बनी हुयी हैं। 21 अगस्त 1919 में ई0 में तत्कालीन गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर एक बालक का जन्म हुआ। (इनके जन्म की तिथि के संबंध में यह विवाद है कि यह 21 अगस्त 1919 है अथवा 20 अगस्त 1919। डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह प्रमाणित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की जन्म तिथि 21 अगस्त 1919 है ) उनके नाम के सम्बन्ध में भी डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह अवधारित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का असली नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था। श्री चन्द्र कुंवर की मां का दिया हुआ नाम श्रीचन्द्र था तथा उनके पिता का दिया हुआ नाम कुँवर सिंह था और इनका प्रसिद्ध साहित्यिक नाम है श्रीचन्द्रकॅुवर। इस प्रकार माँ और पिता दोनो की भावनाओं की रक्षा हो सके इसलिये उन्होंने अपना साहित्यिक नाम चन्द्रकॅुवर अपनाया था। वे अपनी माता पिता की प्रथम और इकलौती संतान थे।

उनके परम प्रिय मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा के अनुसार उनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई। तद्पश्चात पौड़ी गढ़वाल के मिशन कालेज (वर्तमान में मैसमोर इन्टर कालेज) से 1935 में उन्होंने हाई स्कूल किया और उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया जहां उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी रहते थे। वे दोनो वहाँ साथ ही रहने लगे थे जहाँ श्री बहुगुणा ने उन्हें अत्यधिक स्नेह और संबल प्रदान किया। बांज और बुरांस की जड़ों से रिसता हुआ पानी पीने की आदत डाल चुके श्री बर्त्वाल से मैदानी क्षेत्रों की आपाधापी सहन न हो सकी और वे बीमार रहने लगे और अंततः इतना बीमार हुए कि 1941 के दिसम्बर माह में आगे की पढ़ाई छोड़कर अपने गाँव वापस लौट आए । लखनऊ से लौटकर उन्हें पंवालिया जाना पडा जो उनके जन्म ग्राम मालकोटी से कुछ दूरी पर स्थित था और मालकोटी से अधिक समृद्ध और प्राकृतिक शोभा से युक्त था। यह चमोली जनपद में रूद्रप्रयाग और केदारनाथ के बीच केदारनाथ मार्ग पर भीरी के नजदीक बसा ग्राम है जिसे बर्त्वाल परिवार ने सिंचित और अधिक उत्पादकता रखने वाली भूमि पर हरियाली और खुशहाली की उम्मीदों के साथ लिया था।

इस स्थान के संबंध में डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘हिलांस’ मासिक के सितम्बर 1980 अंक में प्रकाशित लेख में कहा है कि वह ग्राम पंवालिया केदारनाथ के पंडेा के अधिकारक्षेत्र में हुआ करता था। इन पंडों ने किसी लाला से एक हजार रूपये कर्ज लिया था जिसे चुकाने का दबाव उन पर था। जब लाला के कर्ज केा चुकाने में उन्हे सफलता नहीं मिली तो विपत्ति के समय में कर्ज को चुकाने के लिये इस गाँव पंवालिया को बेच कर कर्ज की अदायगी करने की सोची। इसी समय उस लाला ने बडी क्रूरता के साथ पंवालिया को मात्र हजार रूपये में बर्त्वाल परिवार को बेचने का प्रस्ताव किया। मालकोटी से अलग एक नया धरौंदा बनाने के अवसर का उपयोग करने की आशा से बर्त्वाल परिवार ने यह जमीन ले ली। यह मान्यता है कि बुरे दिनों में भूमि और भवन से वंचित होने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों ने इस भूमि पर बसने वालों को न फलने का अभिशाप दिया। उन्होंने जब पंवालिया को छोडा तो वहां की मिट्टी कई देवस्थानों को चढाई और बददुआयें दी। बददुआवों के असर ने बर्त्वाल परिवार को छिन्न भिन्न करना प्रारंभ कर दिया। जब से बर्त्वाल परिवार ने पंवालिया में डेरा डाला, तभी से कविवर बीमारी की चपेट में आ गये और उसका परिवार भी कालान्तर में प्रभावित हुआ।

वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘चन्द्रकुवर बर्त्वाल की कवितायें भाग-एक’ में यह रहस्योद्घाटन किया हैं कि उन्होंने अपना लिखा संकोचवश पत्रिकाओं में भी नहीं भेजा। बस स्वातः सुखाय कवितायें लिखी और पास रख लीं बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज दीं। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने 350 कविताओं का संग्रह संपादित किय । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। उनकी दूरदृष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। ‘मैकाले के खिलौने’ नामक कविता का अंश देखियेः- मेड इन जापान , खिलौनों से सस्ते हैं लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे। उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:- मजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को, लीग सी नाज्.ारी जो छोडी नामर्द कहें क्या हम तुम को। श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे ।

उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की घनिष्ठता थी। ’उत्तराखण्ड भारती’ त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 पर यह अंकित है कि निराला जी के साथ 1939 से 1942 तक उन्होंने अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था। उन्होंने 25 से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिससे कहानी ,एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः- हृदयों में जागेगा प्रेम और नयनों में चमक उठेगा सत्य, मिटेंगे झूठे सपने। लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पाँच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को मुखर कियाः-

मकडी काली मौत है, रोग उसी के जाल, मक्खी से जिसमें फँसे ,चन्द्र कुँवर बर्त्वाल। खडी हो रही हड्डियाँ, सूख रही है खाल।

अपने दुखों के सम्बन्ध में कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-

प्रिय यशपाल जी, अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूँ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा....सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूँ और इधर उधर अस्त-व्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।

और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद वे शायद आजाद भारत की हवा में कुछ साँसे लेने के लिए 14 सितम्बर तक जिन्दा रहे। 14 सितम्बर 1947 की रात हिमालय के लिये काल रात्रि साबित हुई जब हिमालय के अमर गायक चन्द्रकुवर बर्त्वाल ने सदा सदा के लिए इस लोक को छोड दिया और हमेशा के लिए सो गए। ऐसा था वह रविवार का दिन। वे चले गए और अपने पीछे अपनी अव्यवस्थित काव्य संपदा को यह कह कर छोड गये-- मैं सभी के करूण-स्वर हूँ सुन चुका हाय मेरी वेदना को पर न कोई गा सका।