भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"परेशानी का आलम है परेशानी नहीं जाती / चाँद शुक्ला हदियाबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चाँद हादियाबादी }} {{KKCatGhazal}} <poem> परेशानी का आलम है प…) |
|||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
हमारी बात कोई भी मगर मानी नहीं जाती | हमारी बात कोई भी मगर मानी नहीं जाती | ||
− | मैं मन की बात करता हूँ | + | मैं मन की बात करता हूँ वो अक्सर टाल जाते हैं |
करूँ मैं लाख कोशिश उनकी मनमानी नहीं जाती | करूँ मैं लाख कोशिश उनकी मनमानी नहीं जाती | ||
19:46, 19 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
परेशानी का आलम है परेशानी नहीं जाती
अब अपनी शक्ल भी शीशे में पहचानी नहीं जाती
यहाँ आबाद है हर शैय खिलें हैं फूल आँगन में
मगर घर से हमारे क्यों ये वीरानी नहीं जाती
कभी इकरार करतें हैं कभी तकरार होती है
हमारी बात कोई भी मगर मानी नहीं जाती
मैं मन की बात करता हूँ वो अक्सर टाल जाते हैं
करूँ मैं लाख कोशिश उनकी मनमानी नहीं जाती
वो मुझको तकते रहतें हैं मैं उनको तकता रहता हूँ
कभी दोनों तरफ से यह निगहबानी नहीं जाती
कभी मैं हँसता रहता हूँ कभी मैं रोता रहता हूँ
करूँ मैं क्या मिरे दिल से पशेमानी नहीं जाती