भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अपनेपन का मतवाला / गोपाल सिंह नेपाली" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली
 
|रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली
 
}}
 
}}
{{KKCatKavita‎}}
+
{{KKCatGeet}}
 
<poem>
 
<poem>
 
अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं  
 
अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं  
पंक्ति 39: पंक्ति 39:
 
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता  
 
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता  
 
मैं हो न सका
 
मैं हो न सका
 +
</poem>

22:04, 20 जनवरी 2011 का अवतरण

अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली

मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के

जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे

ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका