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"यह महाशून्य का शिविर / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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नीचे यह महामौन की सरिता
 
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::::दिग्विहीन बहती है ।
 
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यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
 
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प्रतीकों की परिभाषा
 
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आत्मा में जो अपने ही से
 
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रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
 
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गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
 
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पुरुषों के हर वैभव में ओझल
 
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::::अपौरुषेय मिलता है ।
 
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मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा
 
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अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
 
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :

20:15, 2 फ़रवरी 2011 का अवतरण

यह महाशून्य का शिविर,
असीम, छा रहा ऊपर :
नीचे यह महामौन की सरिता
दिग्विहीन बहती है ।
यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
प्रतीकों की परिभाषा
आत्मा में जो अपने ही से
खुलती रहती है ।
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
अनुभव मॆम एक अतीन्द्रिय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
अपौरुषेय मिलता है ।
मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में
उस एक निर्वच, छ्म्द-मुक्त को
गाता हूँ ।