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बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थे
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जो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थे
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भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा
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इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ
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बार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी
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बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी
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पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं
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हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें
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साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन
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रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश
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हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी
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बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच
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चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी
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कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में ।
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(1991)

23:01, 11 जून 2007 का अवतरण

रचनाकार: मंगलेश डबराल

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खिड़की से अचानक बारिश आई

एक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया

दरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजाया

उसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गए

वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी

पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर

पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को

बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना

चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी

स्कूल जानेवाले रास्ते पर


बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थे

जो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थे

उनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे

भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा

बारिश की तरह था जिसके केशों में बारिश

छिपी होती थी जो फ़िर एक नदी बनकर

चली जाती थी इसी बारिश में एक दिन

मैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापता

हुआ भूल गया जो कुछ याद रखना था

इसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दिया

इसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा


एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता

इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ

दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर

पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं

जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिश

बार बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी

बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी

पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं

हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें

साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन

रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश

हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी

इतने घने बादलों के नीचे हम बार बार

प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थे

बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच

चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी

कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में ।


(1991)