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"बचपन की कविता / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

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22:25, 29 दिसम्बर 2007 का अवतरण


जैसे जैसे हम बड़े होते हैं लगता है हम बचपन के बहुत क़रीब हैं ।

हम अपने बचपन का अनुकरण करते हैं । ज़रा देर में तुनकते हैं और

ज़रा देर में ख़ुश हो उठते हैं । खिलौनों की दूकान के सामने देर तक

खड़े रहते हैं । जहाँ जहाँ ताले लगे हैं हमारी उत्सुक आँखें जानना चाहती

हैं कि वहाँ क्या होगा । सुबह हम आश्च्रर्य सेचारों ओर देखते हैं जैसे

पहली बार देख रहे हों ।


हम तुरंत अपने बचपन में पहुँचना चाहते हैं । लेकिन वहाँ का कोई

नक्शा हमारे पास नहीं है । वह किसी पहेली जैसा बेहद उलझा हुआ

रास्ता है । अक्सर धुँए से भरा हुआ । उसके अंत में एक गुफ़ा है जहाँ

एक राक्षस रहता है । कभी कभी वहाँ घर से भागा हुआ कोई लड़का

छिपा होता है । वहाँ सख़्त चट्टानें और काँच के टुकड़े हैं छोटे छोटे

पैरों के आसपास ।


घर के लोग हमें बार बार बुलाते हैं । हम उन्हें चिट्ठियाँ लिखते हैं ।

आ रहे हैं आ रहे हैं आएँगे हम जल्दी ।


(1990)