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23:49, 8 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
घट के भीतर विकल
रोने की एक आवाज़ रखी होती थी
आवाज़ के जल में मटमैला-सा
घुला हुआ रोना रखा था
समय अपने सिर पर घट को रखकर
व्यतीत की पगडंडी से
क़रीब आता जाता था
वह एक अकुलाते समय की घट-देह
व्यतीत के अस्पष्ट से चलकर
भविष्य के स्पष्ट दृश्य में
पल्लू सँभाले प्रवेश करती थी
घट के भीतर मैं हिलता हुआ एक जल था
घट के भीतर काँपता हुआ
थोड़ा रिसता हुआ मैं जल था
जन्मों का हाहाकारी रुदन
घट में अटका, रुका हुआ था
यूँ ही जन्म बीतता था !