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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
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विहँस कल्पना-कुमारी-संग,
मधुरिमा से कर निज शृंगार,
स्वर्ग के आँगन में सुकुमार!
::मनाते नित उत्सव-आनन्द,
::कौन तुम पुलकित राजकुमार!
फैलता वन-वन आज वसन्त,
प्रकृति आकुल यौवन के भार,
सिहर उठता रह-रह संसार।
::पुलक से खिल-खिल उठते प्राण!::बनो कवि! फूलों की मुस्कान।मुस्कान ।
सरित सम पर देती है ताल,
चन्द्र बुनता किरणों का जाल।जाल ।
सरल शिशु-सा सोता है विश्व,
ओढ़ सपनों का वसन विशाल।विशाल ।::निशा का परम मधुर यह हास।हास ।::बनो कवि! रत्न-खचित आकाश।आकाश ।
विरह से व्याकुल, तप्त शरीर,
जलन से झुलस रहे सब गात,
जुड़ी है आँखों की बरसात,
::सिसक-संयुक्त अति करुण उसाँस।उसाँस ।::बनो कवि! सावन-भादो मास।मास ।
न उपवन का वह विभव-विलास,
न कलियों का मृदु गंधोच्छ्वास,
लता, तरुओं की शुष्क कतार,
यही है उपवन के शॄंगार।शॄंगार ।::काल का अति निर्मम आघात।आघात ।::बनो कवि! तरु का मर्मर-पात।पात ।
मधुर यौवन-स्वप्नों में भूल
और फँस वैभव के छवि-जाल
वासना-आसव का कर पान
मनुजता हुई बहुत बेहाल।बेहाल ।::अचिर अन्तहित हों सब क्लेश।क्लेश ।::लिखो कवि! अमर स्वर्ण-संदेश।संदेश ।
न खिलता उपवन में सुकुमार
सुमन कोई अक्षय छविमान,
क्षणिक निशि का हीरक-शृंगार,
उषा की क्षणभंगुर मुसकान।मुसकान ।::क्षणिक चंचल जीवन नादान।नादान ।::हँसो कवि! गाकर ऐसे गान। १९३१गान ।
'''१९३१'''
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