"चुनरी के दाग़ / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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+ | जीवन भर रगड़-रगड़ माँजते रहे तुम, | ||
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+ | मन ही मन मनाते कि इतनी अशान्ति न व्याप जाये | ||
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+ | जो पीर औरों ने झेली मेरे कारण, | ||
+ | उड़-उड़ वही कण, मटमैला कर गये , | ||
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+ | किया तो मैंने ही ! | ||
+ | शूल सा चुभ रहा अब ! | ||
+ | नहीं, क्षमा नहीं, | ||
+ | कोई क्षमा नहीं ! | ||
+ | कर लेने दो निवारण ! | ||
+ | नहीं सहा जायेगा इतना बोझ , | ||
+ | जन्म-जन्मान्तर झुका छोड़ जाये जो ! | ||
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+ | ओ रे ,घटवासी | ||
+ | धो लेने दो जाने से पहले , | ||
+ | दे दो , अवसर परिमार्जन का ! | ||
+ | नहीं तो कैसे करूँगी सामना ! | ||
+ | कहाँ टिकूँगी तुम्हारी उज्ज्वलता के आगे ! | ||
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+ | कोरे अश्रुजल से नहीं धुलेंगे ये दाग़, | ||
+ | कर्मों का साबुन घिस-घिस , | ||
+ | रगड़ने दो थोड़ा और ! | ||
+ | थोड़ा और मँज लेने दो , | ||
+ | हो लेने दो निर्मल ! | ||
+ | * | ||
+ | यह ओढी हुई चूनर उतार, | ||
+ | रख जाऊँ यहीं ! | ||
+ | कि जब सामना हो तुमसे , | ||
+ | मेरे अंतर्यामी, | ||
+ | झेल सकूँ वह प्रखर तेज , | ||
+ | सिर उठा कर देख सकूँ , | ||
+ | वह स्नेहिल मुस्कान , | ||
+ | और आत्मसात् कर सकूँ | ||
+ | दिव्यता का अमृत प्रसाद ! | ||
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08:15, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
अचानक लगा मैं हूँ ,
पर अपने से भिन्न !
सब कुछ घूमता हुआ
सारा बिगत, प्रत्यक्ष घटता हुआ !
शुरू से आखीर तक का सफ़र
त्वरित, गुज़र गया सामने से !
दर्शक मात्र रह गई अपनी ही यात्रा की !
देख लिया ,
लगे हैं दाग़ मेरी चुनरी में !
और निकट प्रस्थान की बेला !
क्षण-क्षण साक्षी मेरे,
जीवन भर रगड़-रगड़ माँजते रहे तुम,
नत-शिर ग्रहण करती रही,
तुम्हारा अवदान,
मन ही मन मनाते कि इतनी अशान्ति न व्याप जाये
जो आपा खो उभ्रान्त हो उठूँ,
बहक जाऊँ,बिखर जाऊँ अनजान दिशाओं में !
चूनर मेरी घिस गई ,
हो गई बेरंग जर्जर,
ताने-बाने रहे बिखर,
ऊपर से जमे हुये ये छींटे !
जो पीर औरों ने झेली मेरे कारण,
उड़-उड़ वही कण, मटमैला कर गये ,
ओढ़ कर आई थी जो स्वच्छ चूनर !
जाने-अनजाने जैसा भी,
किया तो मैंने ही !
शूल सा चुभ रहा अब !
नहीं, क्षमा नहीं,
कोई क्षमा नहीं !
कर लेने दो निवारण !
नहीं सहा जायेगा इतना बोझ ,
जन्म-जन्मान्तर झुका छोड़ जाये जो !
ओ रे ,घटवासी
धो लेने दो जाने से पहले ,
दे दो , अवसर परिमार्जन का !
नहीं तो कैसे करूँगी सामना !
कहाँ टिकूँगी तुम्हारी उज्ज्वलता के आगे !
कोरे अश्रुजल से नहीं धुलेंगे ये दाग़,
कर्मों का साबुन घिस-घिस ,
रगड़ने दो थोड़ा और !
थोड़ा और मँज लेने दो ,
हो लेने दो निर्मल !
यह ओढी हुई चूनर उतार,
रख जाऊँ यहीं !
कि जब सामना हो तुमसे ,
मेरे अंतर्यामी,
झेल सकूँ वह प्रखर तेज ,
सिर उठा कर देख सकूँ ,
वह स्नेहिल मुस्कान ,
और आत्मसात् कर सकूँ
दिव्यता का अमृत प्रसाद !