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+ | देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! | ||
+ | भवभंग-कारण शरण-शोकहारी। | ||
+ | ये तु भवदंघ्रिपल्लव- समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी।1। | ||
+ | असुर,सुर नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्नेे। | ||
+ | संत-संसर्ग त्रेवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने।2। | ||
+ | वृत्र, बालि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृन्ध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी। | ||
+ | साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्रव्पच- यवनादि कैवल्य-भागी।3। | ||
+ | शांत , निरपेक्ष, निर्मम,निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी। | ||
+ | दक्ष, समदृक, विब अति स्वपरमति, परमरनिविरत तव चक्रपानी।4। | ||
+ | विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यत्तमदमन्यु, क्रत पुण्यरासी। | ||
+ | यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी।5। | ||
+ | वेद-प्य सिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता। | ||
+ | सार सतसंगमुद्धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता।6। | ||
+ | शोक-संदेह, भय-हर्ष , तम-तर्षगण, साध्ु-सद्युक्ति विच्छेदकारी। | ||
+ | यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू- निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी।7। | ||
+ | यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोति संकट अनेकं। | ||
+ | तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं।8। | ||
+ | प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी। | ||
+ | संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी।9। | ||
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+ | देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं। | ||
+ | अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1। | ||
+ | श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं। | ||
+ | तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2। | ||
+ | सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं। | ||
+ | अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3। | ||
+ | शक्र-प्रेरित घेार मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी। | ||
+ | मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4। | ||
+ | पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं। | ||
+ | सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5। | ||
+ | मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता। | ||
+ | द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6। | ||
+ | विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा। | ||
+ | धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7। | ||
+ | परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी। | ||
+ | दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8। | ||
+ | दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी। | ||
+ | देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9। | ||
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13:15, 11 मार्च 2011 का अवतरण
पद 51 से 60 तक
(57)
देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग!
भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
ये तु भवदंघ्रिपल्लव- समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी।1।
असुर,सुर नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्नेे।
संत-संसर्ग त्रेवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने।2।
वृत्र, बालि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृन्ध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्रव्पच- यवनादि कैवल्य-भागी।3।
शांत , निरपेक्ष, निर्मम,निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
दक्ष, समदृक, विब अति स्वपरमति, परमरनिविरत तव चक्रपानी।4।
विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यत्तमदमन्यु, क्रत पुण्यरासी।
यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी।5।
वेद-प्य सिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता।
सार सतसंगमुद्धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता।6।
शोक-संदेह, भय-हर्ष , तम-तर्षगण, साध्ु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू- निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी।7।
यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोति संकट अनेकं।
तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं।8।
प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी।9।
(60)
देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।
अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1।
श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।
तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2।
सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।
अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3।
शक्र-प्रेरित घेार मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।
मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4।
पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।
सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5।
मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता।
द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6।
विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।
धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7।
परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी।
दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8।
दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी।
देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9।