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+ | अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे राम मन बचन-काय।। | ||
+ | लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय। | ||
+ | जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन-बाय।। | ||
+ | मध्य बसस धन हेेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय। | ||
+ | राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय।। | ||
+ | सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय। | ||
+ | सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय।। | ||
+ | अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय। | ||
+ | सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय।। | ||
+ | जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय। | ||
+ | तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्यौ गयँद जाके एक नाँय।। | ||
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+ | मन! माधवको नेकु निहारहि। | ||
+ | सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।। | ||
+ | सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि। | ||
+ | रंजन संत, अखिल अघ-गंजन , भंजन बिषय-बिकारहि।। | ||
+ | जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयेा चहै भव-पारहि। | ||
+ | तौ जानि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि।। | ||
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+ | श्रीरघुवीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ।। | ||
+ | जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ। | ||
+ | सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तुउ भजन करत अजहूँ।। | ||
+ | जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ। | ||
+ | हरि -पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ।। | ||
+ | करूनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा संवतहूँ।। | ||
+ | और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ।। | ||
+ | सुरूचि कह्यो सेाइ सत्य तात अति परूष बचन जबहूँ।। | ||
+ | तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ।। | ||
+ | दीन | ||
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13:18, 11 मार्च 2011 का अवतरण
पद 81 से 90 तक
(83)
कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।
अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे राम मन बचन-काय।।
लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन-बाय।।
मध्य बसस धन हेेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय।।
सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय।।
अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय।।
जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्यौ गयँद जाके एक नाँय।।
(85)
मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।।
सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन , भंजन बिषय-बिकारहि।।
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयेा चहै भव-पारहि।
तौ जानि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि।।
(86)
इहै कहृयो सुत! ब्ेाद चहूूँ ।
श्रीरघुवीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ।।
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तुउ भजन करत अजहूँ।।
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि -पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ।।
करूनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा संवतहूँ।।
और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ।।
सुरूचि कह्यो सेाइ सत्य तात अति परूष बचन जबहूँ।।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ।।
दीन