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"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 6" के अवतरणों में अंतर

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देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग!
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भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
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ये तु भवदंघ्रिपल्लव- समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी।1।
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असुर,सुर नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्नेे।
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संत-संसर्ग त्रेवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने।2।
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वृत्र, बालि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृन्ध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
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साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्रव्पच- यवनादि कैवल्य-भागी।3।
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शांत , निरपेक्ष, निर्मम,निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
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दक्ष, समदृक, विब अति स्वपरमति, परमरनिविरत तव चक्रपानी।4।
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विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यत्तमदमन्यु, क्रत पुण्यरासी।
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यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी।5।
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वेद-प्य सिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता।
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सार सतसंगमुद्धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता।6।
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शोक-संदेह, भय-हर्ष , तम-तर्षगण, साध्ु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
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यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू- निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी।7।
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यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोति संकट अनेकं।
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तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं।8।
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प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
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संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी।9।
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(60)
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देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।
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अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1।
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श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।
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तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2।
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सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।
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अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3।
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शक्र-प्रेरित घेार मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।
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मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4।
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पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।
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सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5।
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मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता।
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द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6।
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विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।
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धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7।
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परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी।
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दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8।
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दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी।
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देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9।
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13:04, 25 मार्च 2011 का अवतरण