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"मापदण्ड बदलो / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=सूर्य का स्वागत / दुष्यन्त कुमार
 
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मेरी प्रगति या अगति का
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यह मापदण्ड बदलो तुम,
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जुए के पत्ते-सा
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मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
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मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
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कोपलें उग रही हैं,
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पत्तियाँ झड़ रही हैं,
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मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
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लड़ता हुआ
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नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।
  
मेरी प्रगति या अगति का<br>
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अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
यह मापदण्ड बदलो तुम,<br>
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मेरे बाज़ू टूट गए,
जुए के पत्ते सा<br>
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मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।<br>
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मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,<br>
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या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
कोपलें उग रही हैं,<br>
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तो मुझे पराजित मत मानना,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,<br>
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समझना –
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,<br>
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तब और भी बड़े पैमाने पर
लड़ता हुआ<br>
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मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ <br><br>
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मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
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एक बार और
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शक्ति आज़माने को
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धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
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मचल रही होंगी ।
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एक और अवसर की प्रतीक्षा में
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मन की क़न्दीलें जल रही होंगी
  
अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,<br>
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ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
मेरे बाज़ू टूट गए,<br>
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ये मुझको उकसाते हैं ।
मेरे चरणों में आंधियों के समूह ठहर गए,<br>
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पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,<br>
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मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,<br>
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मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
तो मुझे पराजित मत मानना,<br>
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क़सम देती हैं ।
समझना <br>
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कुछ हो अब, तय है
तब और भी बड़े पैमाने पर<br>
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मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,<br>
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पत्थरों के सीने में
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ<br>
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प्रतिध्वनि जगाते हुए
एक बार और<br>
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परिचित उन राहों में एक बार
शक्ति आज़माने को<br>
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विजय-गीत गाते हुए जाना है –
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को<br>
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जिनमें मैं हार चुका हूँ
मचल रही होंगी ।<br>
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मन की क़न्दीलें जल रही होंगी <br><br>
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ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं<br>
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मेरी प्रगति या अगति का
ये मुझको उकसाते हैं ।<br>
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यह मापदण्ड बदलो तुम
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें<br>
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मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।<br>
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मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ<br>
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क़सम देती हैं ।<br>
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कुछ हो अब, तय है –<br>
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मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,<br>
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परिचित उन राहों में एक बार<br>
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जिनमें मैं हार चुका हूँ ।<br><br>
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मेरी प्रगति या अगति का<br>
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यह मापदण्ड बदलो तुम<br>
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मैं अभी अनिश्चित हूँ ।<br><br>
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10:52, 4 अप्रैल 2011 का अवतरण

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।