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23:31, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
जब कभी
फ़ुरसत में होता है आसमान,
उसके नीले विस्तार में
डूब जाते हैं
मेरी परिधि और बिंदु के
सभी अर्थ ।
क्षितिज तट पर
औंधी पड़ी दिशाओं में
बिजली की कौंध
मरियल जिजीविषा-सी लहराती है ।
इच्छाओं की मेघगर्जना
आशाओं की चकमकी चमक
के साथ गूँजती रहती है ।
तब मन की घाटियों में
वर्षों से दुबका पड़ा सन्नाटा
खाली बरतनों की तरह
थर्राता है ।
जब कभी फ़ुरसत में होती हूँ मैं
मेरा आसमान मुझको रौंदता है
बंजर उदास मिट्टी के ढूह की तरह
सारे अहसास
हो जाते हैं व्यर्थ ।