"बड़ी मान लीला / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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राधेहिं स्याम देखी आइ । | राधेहिं स्याम देखी आइ । | ||
20:13, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
राधेहिं स्याम देखी आइ ।
महा मान दृढ़ाइ बैठी, चितै काँपैं जाइ ॥
रिसहिं रिस भई मगन सुंदरि, स्याम अति अकुलात ।
चकित ह्वै जकि रहे ठाढ़े, कहि न आवै बात ॥
देखि व्याकुल नंद-नंदन, रूखी करति विचार ।
सूर दोउ मिलैं, जैसैं, करौ सोइ उपचार ॥1॥
यह ऋतु रूसिबे की नाहीं ।
बरषत मेघ मेदिनी कैं हित, प्रीतम हरषि मिलाहीं ॥
जेती बेलि ग्रीष्म ऋतु डाहीं, ते तरवर लपटाहीं ।
जे जल बिनु सरिता ते पूरन, मिलन समुद्रहिं जाही ॥
जोबन धन है दिवस चारि कौ, ज्यौं बदरी की छाहीं ।
मैं, दंपति-रस-रीति कही है, समुझि चतुर मन माहीं ॥
यह चित धरि री सखी राधिका, दै दूती कौ बाहीं ।
सूरदास उठि चली री प्यारी, मेरैं सँग पिय पाहीं ॥2॥
तोहि किन रूठन सिखई प्यारी ।
नवल बैस नव नागरि स्यामा, वे नागर गिरिधारी ॥
सिगरी रैनि मनावति बीती, हा हा करि हौं हारी ।
एते पर हठ छाँड़ति नाहीं, तू वृषभानु दुलारी ॥
सरद-समय-ससि-दरस समरसर, लागै उन तन भारी ।
मेटहु त्रास दिखाइ बदन-बिधु, सूर स्याम हितकारी ॥3॥
हर-मुख राधा-राधा बानी ।
धरिनी परे अचेत नहीं सुधि, सखी देखि अकुलानी ॥
बासर गयौ, रैन इक बीती, बिनु भोहन बिनु पानी ।
बाहँ पकरि तब सखिनि जगायौ, धनि-धनि सारँगपानी ॥
ह्याँ तुम बिबस भए हौ ऐसे, ह्वाँ तौ वे बिबसानी ।
सूर बने दोउ नारि पुरुष तुम, दुहुँ की अकथ कहानौ ॥4॥
सुनि री सयानी तिय रूसिबे कौ नेम लियौ, पावस दिननि कोऊ ऐसौ है करत री ।
दिसि दिसि घटा उठी मिली री पिया सौं रूठी, निडर हियौ है तेरौं नैंकु न सरत री ॥
चलिए री मेरी प्यारी, मौकौं मान देन हारी, प्रानहुँ तैं प्यारे पति धीर न धरत री ।
सूरदास प्रभु तोहिं दियौ चाहै हित-बित, हँसि क्यौं न मिलै तेरौ नेम है टरत री ॥5॥
बेरस कीजै नाहिं भामिनी, मैं रिस की बात ।
हौं पठई तोहिं लेन साँवरैं, तोहिं बिनु कछु न सुहात ॥
हा हा करि तेरे पाइँ परति हौं, छिनु छिनु निसि घटि जात ।
सूर स्याम तेरौ मग जोवत, अति आतुर अकुलात ॥6॥
माधौ, तहाँ बुलाई राधे, जमुना निकट सुसीतल छहियाँ ।
आछी नीकी कुसुँभी सारी गोरैं तन, चलि हरि पिय पहियाँ ॥
दूती एक गई मोहिनि पै, जाइ कह्यौ यह प्यारी कहियाँ ।
सूरदास सुनि चतुर राधिका,स्याम रैनि बृंदाबन महियाँ ॥7॥
झूँमक सारी तन गोरैं हो ।
जगमग रह्यौ जराइ कौ टीकौ, छबि की उठति झकोरैं हो ॥
रत्न जटित के सुभग तर्यौना, मनहुँ जाति रबि भोरैं हो ।
दुलरी खंठ निरखि पिय इक टक, दृग भए रहैं चकोरैं हो ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन खौं, रीझि=रीझि तृन तोरैं हो ॥8॥
राधिका बस्य करि स्याम पाए ।
बिरह गयो दूरि, जिय हरष हरि के भयौ, सहस मुख निगम जिहिं नेति गायौ ॥
मान तजि मानिनी मैन कौ बल हर्यौ, करत तनु कंत जो त्रास भारी ।
कोक बिद्या निपुन, स्याम स्यामा बिपुल. कुंज-गृह द्वार ठाढ़े मुरारी ॥
भक्त-हित-हेत अवतार लीला करत, रहत प्रभु तहाँ निजु ध्यान जाकैं ।
प्रगट प्रभु सूर ब्रजनारि कैं हित बँधे, तेत मन-काम-फल संग ताकैं ॥9॥