"एलबम / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
<Poem> | <Poem> | ||
कोई चिट्ठी नहीं मिली अब तक | कोई चिट्ठी नहीं मिली अब तक | ||
− | |||
तुम्हारा फोन भी नहीं आया | तुम्हारा फोन भी नहीं आया | ||
− | |||
कैसे समझूँ कि याद करते हो | कैसे समझूँ कि याद करते हो | ||
− | |||
वो अलग दौर था कुछ और ही ज़माना था | वो अलग दौर था कुछ और ही ज़माना था | ||
− | |||
जब एक फोन भी नहीं था सारे घर में | जब एक फोन भी नहीं था सारे घर में | ||
− | |||
आज हर हाथ में मोबाइल हुआ करता है | आज हर हाथ में मोबाइल हुआ करता है | ||
− | |||
मैंने माना कि मेरा घर भी नहीं है लेकिन | मैंने माना कि मेरा घर भी नहीं है लेकिन | ||
− | |||
मेरे पास जो कुछ है सब तुम्हारा है | मेरे पास जो कुछ है सब तुम्हारा है | ||
− | |||
रास्ता भूल कर तशरीफ अपने घर लाओ । | रास्ता भूल कर तशरीफ अपने घर लाओ । | ||
− | |||
कितने साल हो गये तुमको देखा ही नहीं | कितने साल हो गये तुमको देखा ही नहीं | ||
− | |||
कितनी सदियाँ हुई तेरी आवाज़ सुनी थी | कितनी सदियाँ हुई तेरी आवाज़ सुनी थी | ||
− | |||
अब कभी तुमसे बात होगी तो | अब कभी तुमसे बात होगी तो | ||
− | |||
तेरी आवाज़ को तकसीम कर दूँगा मैं | तेरी आवाज़ को तकसीम कर दूँगा मैं | ||
− | |||
अपने फाइल से चिपकाऊँगा छोटा टुकड़ा | अपने फाइल से चिपकाऊँगा छोटा टुकड़ा | ||
− | |||
और पहन लूँगा बड़ा टुकड़ा दोनों कानों में । | और पहन लूँगा बड़ा टुकड़ा दोनों कानों में । | ||
− | |||
तुम्हें पता ही नहीं दुनिया कितनी डेवलप है | तुम्हें पता ही नहीं दुनिया कितनी डेवलप है | ||
− | |||
अगर चाहो तो ‘ई-मेल’ भी कर सकते हो | अगर चाहो तो ‘ई-मेल’ भी कर सकते हो | ||
− | |||
बात हो सकती है ‘गूगल-टॉक’ के सहारे | बात हो सकती है ‘गूगल-टॉक’ के सहारे | ||
− | |||
मुझे लगता है बात करना ही नहीं चाहते हो | मुझे लगता है बात करना ही नहीं चाहते हो | ||
− | |||
वरना इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती होगी | वरना इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती होगी | ||
− | |||
कि डाल कर ‘एक का सिक्का’ | कि डाल कर ‘एक का सिक्का’ | ||
− | |||
पी सी ओ से फोन करो । | पी सी ओ से फोन करो । | ||
− | |||
तुम्हें पता ही नहीं शायद रिश्ता क्या है ? | तुम्हें पता ही नहीं शायद रिश्ता क्या है ? | ||
− | |||
और कैसे निभाये जाते हैं | और कैसे निभाये जाते हैं | ||
− | |||
‘ब्लॉग’ मेरा कभी पढ़ा तुमने ? | ‘ब्लॉग’ मेरा कभी पढ़ा तुमने ? | ||
− | |||
कि जिसमें ज़िक्र है तुम्हारा भी | कि जिसमें ज़िक्र है तुम्हारा भी | ||
− | |||
मैंने लिखी है कई नज़्में तुम्हारी ख़ातिर | मैंने लिखी है कई नज़्में तुम्हारी ख़ातिर | ||
− | |||
मैं तुमको याद बहुत करता हूँ । | मैं तुमको याद बहुत करता हूँ । | ||
− | |||
कैसे समझाऊँ कि मेरे लगते क्या हो ? | कैसे समझाऊँ कि मेरे लगते क्या हो ? | ||
− | |||
जब भी देखी तेरी तस्वीर अपनी एलबम में | जब भी देखी तेरी तस्वीर अपनी एलबम में | ||
− | |||
लगा कि सामने रखी है मेरी रूह जैसे | लगा कि सामने रखी है मेरी रूह जैसे | ||
− | |||
और खुल गया है जिस्म दरीचे की तरह | और खुल गया है जिस्म दरीचे की तरह | ||
− | |||
मैं एलबम को बार-बार देखता हूँ । | मैं एलबम को बार-बार देखता हूँ । | ||
<Poem> | <Poem> |
01:31, 25 मई 2011 के समय का अवतरण
कोई चिट्ठी नहीं मिली अब तक
तुम्हारा फोन भी नहीं आया
कैसे समझूँ कि याद करते हो
वो अलग दौर था कुछ और ही ज़माना था
जब एक फोन भी नहीं था सारे घर में
आज हर हाथ में मोबाइल हुआ करता है
मैंने माना कि मेरा घर भी नहीं है लेकिन
मेरे पास जो कुछ है सब तुम्हारा है
रास्ता भूल कर तशरीफ अपने घर लाओ ।
कितने साल हो गये तुमको देखा ही नहीं
कितनी सदियाँ हुई तेरी आवाज़ सुनी थी
अब कभी तुमसे बात होगी तो
तेरी आवाज़ को तकसीम कर दूँगा मैं
अपने फाइल से चिपकाऊँगा छोटा टुकड़ा
और पहन लूँगा बड़ा टुकड़ा दोनों कानों में ।
तुम्हें पता ही नहीं दुनिया कितनी डेवलप है
अगर चाहो तो ‘ई-मेल’ भी कर सकते हो
बात हो सकती है ‘गूगल-टॉक’ के सहारे
मुझे लगता है बात करना ही नहीं चाहते हो
वरना इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती होगी
कि डाल कर ‘एक का सिक्का’
पी सी ओ से फोन करो ।
तुम्हें पता ही नहीं शायद रिश्ता क्या है ?
और कैसे निभाये जाते हैं
‘ब्लॉग’ मेरा कभी पढ़ा तुमने ?
कि जिसमें ज़िक्र है तुम्हारा भी
मैंने लिखी है कई नज़्में तुम्हारी ख़ातिर
मैं तुमको याद बहुत करता हूँ ।
कैसे समझाऊँ कि मेरे लगते क्या हो ?
जब भी देखी तेरी तस्वीर अपनी एलबम में
लगा कि सामने रखी है मेरी रूह जैसे
और खुल गया है जिस्म दरीचे की तरह
मैं एलबम को बार-बार देखता हूँ ।