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निकलती है
जब गुनगुनी धूप
हरी घास से लिपटी
ओस की बूँदें
सिहराती है तलवें
हँसती है
आँगन की रातरानी
माँ की भूनी सेवइयाँ
भर जाती है
बेतहाशा नथुनों में
उम्र से बेख़बर
एक लड़की भीगती जाती है
बरसात में
लिफ़ाफ़े बिना पते के भी
तलाशते हैं अपना कोना
ऊँघते शहर के
बेचैन आख़िरी छोर पर
प्रेम मिलता है
पहाड़ों का रास्ता पूछते हुए