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21:27, 30 जून 2011 के समय का अवतरण
मीरा नहीं हो तुम
न मैं ही हूँ तुम्हारा गिरिधर लीलाधाम
तुम्हारे ओठ छूकर भी
ज़माने का ज़हर अमृत नहीं होता
न मेरे चाहने भर से ही बनता है
तुम्हारी ओर बढ़ता साँप, शालिग्राम ।
इसलिये तुम ज़हर का प्याला उठा कर
आज राणा के ही होठों से लगाने के लिए जी कड़ा कर लो
और मैं ?
मैं अभी इस साँप का सिर कुचलता हूँ !