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चढ़ा था प्यार का कुछ ऐसा रंग आँखों पर
कली खुद ख़ुद अपनी नज़र का शिकार होती रही
कभी गुलाब को देखा न उस तरह से खिला
भले ही बाग़ में रस की फुहार होती रही
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